गुरुवार, 10 जुलाई 2008

विदुषक...


वो हंस देती थी..,
कहती थी-’तुम विदुषक हो..।’
अब वो अपना खाना खाती,
अपने हिस्से की अलग कहीं,
हवा पी लेती है।
नींद आता है तो कहीं सो रही होती है।
पर जब भी वो हंसना चाहती है...
कहती है-’तुम्हें याद कर लेती हूँ,हसीं आ जाती है।’
जब वो जा रही थी... कहीं..,
तब भी उसने मुझसे कुछ कहा था।
पर मैंने कुछ और ही सुना... और देखा...
वो हंस रही है।
सोचता हूँ, अभी वो कहीं अगर मुझसे टकरा जाएगी...
कहीं भी...
सड़क में, बाज़ार में, किसी मोड़ पर...
तब शायद वो मुझे मेरे नाम से ही पुकारेगी...
पर मैं इस तरफ खडे होकर...
विदुषक ही सुन रहा होऊंगा।
और चुप रहूगाँ...
मानों वो किसी और को आवाज़ दे रही हो...।
फिर मैं ऊपर आसमान की तरफ देखूगाँ,
अगर बादल होगें तो उनके बारे में सोचूगाँ,
और अगर धूप होगी,
तो अपने पसीने की बूंद का टपकना देखूगाँ।
इस बात पे मैं वापिस,
विदुषक हो जाऊगाँ।

रहस्य..


पीड़ा,बूंद-बूंद टपकती है, खाली घर में...
जैसे- थमे तालाब में कोई बच्चा..
बार-बार पत्थर मारे।
उस पत्थर से बने वृत्त,
पूरे तालाब को अस्थिर कर देते हैं।
घर स्थिर होने में अपना समय लेता है।


पीड़ा क्या है?
शायद अपने किसी रहस्य का बहुत भीतर बहते रहना।
पर किसी को पता चलते ही वो रहस्य..
पीड़ा नहीं रह जाता,
वो दुख हो जाता है...।


पीड़ा का टपकना... पलकों के झपने जैसा है।
अगर पलकों का झपकना..
किसी ज़िद्द में रोक दूँ...।
तो... आँखें छलक जाएगीं..
और पीड़ा, दुख बन जाएगा।

सूटकेस...


मेरी पल्कों के बाल कई बार मेरी हथेली तक आए हैं,
पर मैंने कभी उन्हें आँखें बंद करके उड़ाया नहीं।
मैंने कई बार तारों को भी टूटते हुए देखा है,
पर मेरी आँखें तब भी खुली रही...
आँखें बंद करके मैंने कभी कुछ मांगा नहीं।
उस सुख की भी कभी तलाश नहीं की...
जिस सुख को जीते हुए मेरी आँखें झुक जाए।
पर एक टीस ज़रुर है...
वो भी उन सुखों की जो मेरे आस-पास ही पड़े थे,
कई बार मेरे रास्ते में भी आए, पर पता नहीं क्यों,
मैं उन्हें जी नहीं पाया....।
अपने ऎसे बहुत से सुखों को, जिन्हें मैं जी नहीं पाया...
मैंने अपने इस पुराने सूटकेस में बंद कर दिया है...।
कभी-कभी इसे खोलकर देख लेता हूँ...
इसमें बड़ा सुख है...
और इस सुख को मैंने कभी अपने इस पुराने सूटकेस में,
गिरने नहीं दिया।
इसे हमेशा अपने पास रखता हूँ।
जिन सुखों को जी नहीं पाया...
उन सुखों को महसूस करना कि, कभी इन्हें जी सकता था।
ये अजीब सुख है।
और जिन सुखों को मैं जी चुका हूँ,
उनका अपना अलग बोझ है,
जिसे ढ़ोते-ढ़ोते जब भी थक जाता हूँ....
तब अपना पुराना सूटकेस खोल लेता हूँ...
और थोड़ा हल्का महसूस करता हूँ।

आप देख सकते हैं....

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