शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

पतंग...


मैंने अपनी पतंग बहुत रंगीन बनाई थी...।
भरी दोपहर में मैं उसे उडाना चाहता था।
इच्छा थी कि एक बार उसे आसमानी हवा लग जाए, और वह गोल-गोल धूमती हुई,
उड़ जाए वहाँ, जहाँ आज तक कोई पतंग ना पहुचँ पाई हो।
बाज़ार का ध्यान उस वक्त नहीं था।
वह कौन सी उम्र होती है जब हमें बिकना ही पड़ता है... पतंग नहीं बिकती।
’पतंग तो उड़ेगी ही, आसमानी हवा कोई बंद थोड़ी हो जाएगी...’ जैसी बातों को बगल में दबाए,
हम बाज़ार में भाग रहे होते है।
फिर एक क्षण आता है जब पहली बार हमें एक रंग की ज़रुरत पडती है और हम अपनी पतंग का एक कोना फाड़ चुके होते है।
रंगों की ज़रुरत कभी खत्म नहीं होती... पतंग फटती रहती है।
बची रह गई पतंग की दो पतली लकड़ीयों से... बाद में हम आसमानी हवा की कल्पना करते हैं।
’पतंग को आसमानी हवा लगेगी और वह वहाँ उड़ेगी जहाँ कभी कोई पतंग नहीं पहुच पाई..’ जैसी बातें हमें बचकानी लगने लगती है.. जिनपर अब महफिलों में बैठकर हम जी भरकर हँसते है।

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