मंगलवार, 16 जून 2009

‘करच-करच, खरच-खरच..’


कोई पीछे खड़े होकर कहता है...

खरगोश... मेरे दोनों कान खड़े हो जाते है।

शिकारी ढूढ़ने का गुण मेरे खून में है।

भागकर अपने कोनों में छुप जाना मेरा हथियार है।

कोनों में दुबके हुए शिकारी की कल्पना, मेरा खेल है।

मेरा कोना जिस घर में है...

उसमें गाजर का आगन है।

भूखे पेट मर जाने से,

 शिकारी का सामना करने का इतिहास मैंने रटा है।

इतिहास को तोड़-मरोड़कर...

मैं चोर हो जाता हूँ।

डरा हुआ देर रात गाजर खाने निकलता हूँ।

‘करच-करच, खरच-खरच..’ की आवाज़ से खुद ही डर जाता हूँ।

गाजर खाना बंद करके, यहाँ वहाँ ताकता हूँ।

शिकारी, मेरा मकान मालिक सो रहा है।

उसका किराया, मेरा काम है।

मुझे पता है एक दिन वह मुझे खा जाएगा।

बचने की सारी कोशिशों की मेरी कहानियाँ...

खत्म हो जाने के डर की ‘करच-करच, खरच-खरच..’ में....

देर रात, चोरी से पाई हुई गाजर हैं...।

आप देख सकते हैं....

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