गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

श्रम...


क्या हमारा श्रम तोला जा सकता है?
क्या कहा जाएगा कि ’इसका तो इतना ही होगा भाई’
या कहा जाएगा कि ’यह काफी नहीं है।’
मैंने श्रम दान किया है...
इस तरह की कोई बात भीतर से उठेगी,
और मेरा सारा श्रम...
हाशिए पर रख दिया जाएगा।
यूं बाज़ार में भाव-तोल करना मेरे खून में है,
धोखा खा जाऊगाँ का डर हमेश बना रहता है।
पर अपने श्रम के साथ भाव-तोल जाता नहीं,
हाँ यह दोग्लेपन की बात है,
पर यह अंतर्मुखी श्रम है...
इसमें श्रम,
अंतर्मुखी नाम की एक चिड़िया करती है।
और उस श्रम को बाहर कोई ओर सहता है।
डरा हुआ मैं बाहर हूँ...
इसलिए वह भीतर उड़ती फिरती है।
यहाँ डर धोखे का नहीं है...
यहाँ डर है...
उस चिड़िया का पसीने में बदल जाना।

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

दर्शक...



वह कहती थी इसे बचाकर रखते हैं....
यह हमारी धूप है...
जब हम ठिठुर रहे होगें तो यह काम आएगी।


फिर यहाँ वहाँ कुछ काँटे भी बीना करती थी....
कहती थी... जब दूसरे गड़ेगें तो इनसे उन्हें निकालूगीं...।


कुछ चीज़े छाती से चिपकाकर बुनती रहती थी....
कहती थी... जब हमारे जैसे कोई होगें तो उन्हें पहनाऊगीं।


सुबह उठते ही घर जमाती, और शाम को घर सजाना सोचती।
सुबह खुश रहती, शाम होते ही चुप हो जाती।


कहती थी सपने सच्चे होते है
जब सोती थी तो कुछ बुदबुदाती रहती थी।
उस बुदबुदाहट के कुछ पात्र थे, आवाज़े थी, हँसी थी।
वह दूसरी दुनियाँ थी...।
जब तक मैंने उस दुनियाँ को जाना, सुना..
मैं दर्शक हो गया।

बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

ख़त...


ख़त, तुल्नात्मक अध्ययन में...
हमेशा धीमी गति से चलने वाला... घोड़ा होगा।
पर भाव फेंकना,
गर प्रमुख है,
तो मैं इस घुड़सवारी के खेल में,
खच्चर होना चाहूगाँ।


और अगर इस खेल में गति प्रमुख है...
तो मैं तुम्हारा नाम लिखने में ही...
बहुत पहले यह खेल हार चुका हूँ।

आप देख सकते हैं....

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