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सोमवार, 12 जुलाई 2010
भूख..
क्या तुमने वह संगीत सुना है,
जिसे कोई भूख के लिए बजा रहा होता है?
बंधे-बंधाए सुर के बीच में कहीं उसकी उंग्लिया गलती से कांप जाती है।
कहते हैं, जब दूर देश से उसकी प्रेमिका का खत उसे मिलता था..
तो वह उस ख़त में प्रेम नहीं.... पैसे तलाशता था।
सुना तुमने.... सुनों...
भूख के लिए उसकी उंग्लिया फिर कांप गई।
लोग उससे कहते हैं कि वह बहुत अच्छा संगीत लिखता है।
तो वह कहता है कि... मैं नहीं लिखता, लिखता तो कोई ओर है...
मैं तो बस उसे सहता हूँ।
संगीत उसकी धमनियों में नहीं है...
वह उसके पेट निकलता है।
हर उंग्लियों की गलती पर उसके संगीत में आत्मा प्रवेश करती है।
कहते है... वह भर पेट संगीत नहीं लिख पाता है...
उसके लिए उसे भूखा रहना पड़ता है।
भूख...
भूख एक आदत है.... बुरी आदत।
जो उस व्यक्ति को लगी हुई है...
जिसे वह लगातार सहता है।
क्या मैं खेल रहा हूँ?
क्या मैं खेल रहा हूँ?
मैं पूरी तैयारी से आता हूँ....
सारे नियमों का रटा-रटाया सा नॄत्य तुम्हें दिखाता हूँ।
तुम नियमों के दूसरी तरफ खड़ी...
हंस देती हो...!!!
क्या मैं खेल रहा हूँ?
यह कहानी किसकी है?... इसे कौन पढ़ रहा है?
इस कहानी के पन्ने मुझॆ कभी तुम्हारे हाथों में नहीं दिखे...!
तुम्हारे नीयम क्या है?... उन नियमों की चाल क्या है?
क्या हम चल रहे हैं?
काश यह कहानी नहीं, नाटक होता...।
काश मैं अपना पात्र चुन सकता..।
काश मैं तुम्हें चुन सकता...।
क्या मैं खेल रहा हूँ?
तुम छुप जाती हो, मैं तुम्हें खोजता नहीं हूँ।
और तुम्हारे मिलते ही मैं तुम्हें ढूढ़ना शुरु कर देता हूँ।
तुम मेरा बचपन हो....।
उस बचपन की शरारत हो...।
बचपन खेल नहीं था...
जबकि मैं खेल रहा था।
क्या मैं अभी भी खेल रहा हूँ???
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