रविवार, 9 सितंबर 2012

वापसी...

आज बहुत दिनों बाद दांए मुड़ गया था। कविता एक जरजर घर की तरह खंडहर थी। पैरों में चटखने वाली पुरानी चीज़े, अपनी धूल तक नहीं छोड़ रही थीं। धूल... धुंध... और धुन....। एकांत... एकांत था बहुत। पूरे घर में सरक रहा था। पुराने पड़े शब्दों से पीला पानी टपक रहा था। क्या सच में वापसी संभव है? वापस उन्हीं बंद किवाड़ों को खड़खटाया जा सकता है? बिना इस डर के कि पता नहीं कौन सा छूटा हुआ कोई... दरवाज़ा खोल दे।

आप देख सकते हैं....

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