शनिवार, 20 दिसंबर 2008

अक़्स...


वह पानी...
उसमें देखा गया अपना ही अक़्स...
पुराने किसी एल्बम के पीले पड़ गए चित्र जैसा...।
रुका-थमा... हतप्रभ सा।
मेरे जानने के बाहर का वह....
मेरी विकृतियों से दूर कहीं... छुपा बैठा है नदी के नीचे कहीं।
दबोच लूँ उसे... कहीं।
नहा लूँ उसमें कभी।
नहीं, छूटा नहीं पड़ा है वह नदी के नीचे कहीं।
वह यहाँ भी है... आस-पास ही कहीं...।
जीवन के गुणा-भाग में,
वह राह चलते कभी-कभी छलक जाता है...।
खाली घर में जब भी कभी दाखिल होता हूँ....
वह बत्ति जलाने के ठीक पहले...
दिख जाता है कभी....।
मूक, शांत सा, हतप्रभ...।
यह मेरा सारा लिखा....
उस पीले पड़ गए अक़्स के सामने, बोझ सा लगता है।
यूँ अपनी बचकानी चालाकी में मैं लोगों से कहता फिरता हूँ कि...
मेरा सारा लिखा,
उस हतप्रभ आँखों के पूछे गए ढ़ेरों सवालों के जवाब सा है।
इस झूठ से हर बार हंसी आती है...
और फिर उस हंसी से... ग्लानी...।
उस अक़्स में कोई सवाल नहीं है....
शिक़ायत भी नहीं...
एक अविश्वसनीय, निश्छल समर्पण सा है...।
जिसे देखकर...
मैं मूक हूँ...
शांत हूँ...
और हतप्रभ...।

रविवार, 14 दिसंबर 2008

"मैं हिन्दु देश का मुस्लमान.."


मुझे अपनी “सीमा” में रहना है।
मैं अंतरिक्ष समझता हूँ, दुनियाँ जानता हूँ।
साँस लेने, खाने-पीने-सोने के भीतर-बाहर, मेरा एक देश है....
जिसे मैं पहचानता हूँ।
मैं एक हिन्दु देश का मुस्लमान हूँ।
मुझे अपनी “हदें” पता है, जैसे हर एक आदमी की अपनी ’हद’ है।
पर अभी कुछ ऎसी तिरछी-आड़ी लक़ीरें दिखती हैं।
जिसमें मेरी “हद”, वह “हद” नहीं है जो सबकी है।
यहाँ तक कि... मेरी “हद” अब “हद” भी नहीं रह गई है,
वह “सीमा” हो गई है।
अब मुझे अपनी “हद” में नहीं...
मुझे अपनी “सीमा” में रहना है।
अब मैं....
मैं अंतरिक्ष समझता हूँ, दुनियाँ जानता हूँ।
साँस लेने, खाने-पीने-सोने के भीतर-बाहर, मेरा एक देश है....
जिसे अब मैं नहीं पहचानता हूँ।

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

पतंग...


मैंने अपनी पतंग बहुत रंगीन बनाई थी...।
भरी दोपहर में मैं उसे उडाना चाहता था।
इच्छा थी कि एक बार उसे आसमानी हवा लग जाए, और वह गोल-गोल धूमती हुई,
उड़ जाए वहाँ, जहाँ आज तक कोई पतंग ना पहुचँ पाई हो।
बाज़ार का ध्यान उस वक्त नहीं था।
वह कौन सी उम्र होती है जब हमें बिकना ही पड़ता है... पतंग नहीं बिकती।
’पतंग तो उड़ेगी ही, आसमानी हवा कोई बंद थोड़ी हो जाएगी...’ जैसी बातों को बगल में दबाए,
हम बाज़ार में भाग रहे होते है।
फिर एक क्षण आता है जब पहली बार हमें एक रंग की ज़रुरत पडती है और हम अपनी पतंग का एक कोना फाड़ चुके होते है।
रंगों की ज़रुरत कभी खत्म नहीं होती... पतंग फटती रहती है।
बची रह गई पतंग की दो पतली लकड़ीयों से... बाद में हम आसमानी हवा की कल्पना करते हैं।
’पतंग को आसमानी हवा लगेगी और वह वहाँ उड़ेगी जहाँ कभी कोई पतंग नहीं पहुच पाई..’ जैसी बातें हमें बचकानी लगने लगती है.. जिनपर अब महफिलों में बैठकर हम जी भरकर हँसते है।

गुरुवार, 10 जुलाई 2008

विदुषक...


वो हंस देती थी..,
कहती थी-’तुम विदुषक हो..।’
अब वो अपना खाना खाती,
अपने हिस्से की अलग कहीं,
हवा पी लेती है।
नींद आता है तो कहीं सो रही होती है।
पर जब भी वो हंसना चाहती है...
कहती है-’तुम्हें याद कर लेती हूँ,हसीं आ जाती है।’
जब वो जा रही थी... कहीं..,
तब भी उसने मुझसे कुछ कहा था।
पर मैंने कुछ और ही सुना... और देखा...
वो हंस रही है।
सोचता हूँ, अभी वो कहीं अगर मुझसे टकरा जाएगी...
कहीं भी...
सड़क में, बाज़ार में, किसी मोड़ पर...
तब शायद वो मुझे मेरे नाम से ही पुकारेगी...
पर मैं इस तरफ खडे होकर...
विदुषक ही सुन रहा होऊंगा।
और चुप रहूगाँ...
मानों वो किसी और को आवाज़ दे रही हो...।
फिर मैं ऊपर आसमान की तरफ देखूगाँ,
अगर बादल होगें तो उनके बारे में सोचूगाँ,
और अगर धूप होगी,
तो अपने पसीने की बूंद का टपकना देखूगाँ।
इस बात पे मैं वापिस,
विदुषक हो जाऊगाँ।

रहस्य..


पीड़ा,बूंद-बूंद टपकती है, खाली घर में...
जैसे- थमे तालाब में कोई बच्चा..
बार-बार पत्थर मारे।
उस पत्थर से बने वृत्त,
पूरे तालाब को अस्थिर कर देते हैं।
घर स्थिर होने में अपना समय लेता है।


पीड़ा क्या है?
शायद अपने किसी रहस्य का बहुत भीतर बहते रहना।
पर किसी को पता चलते ही वो रहस्य..
पीड़ा नहीं रह जाता,
वो दुख हो जाता है...।


पीड़ा का टपकना... पलकों के झपने जैसा है।
अगर पलकों का झपकना..
किसी ज़िद्द में रोक दूँ...।
तो... आँखें छलक जाएगीं..
और पीड़ा, दुख बन जाएगा।

सूटकेस...


मेरी पल्कों के बाल कई बार मेरी हथेली तक आए हैं,
पर मैंने कभी उन्हें आँखें बंद करके उड़ाया नहीं।
मैंने कई बार तारों को भी टूटते हुए देखा है,
पर मेरी आँखें तब भी खुली रही...
आँखें बंद करके मैंने कभी कुछ मांगा नहीं।
उस सुख की भी कभी तलाश नहीं की...
जिस सुख को जीते हुए मेरी आँखें झुक जाए।
पर एक टीस ज़रुर है...
वो भी उन सुखों की जो मेरे आस-पास ही पड़े थे,
कई बार मेरे रास्ते में भी आए, पर पता नहीं क्यों,
मैं उन्हें जी नहीं पाया....।
अपने ऎसे बहुत से सुखों को, जिन्हें मैं जी नहीं पाया...
मैंने अपने इस पुराने सूटकेस में बंद कर दिया है...।
कभी-कभी इसे खोलकर देख लेता हूँ...
इसमें बड़ा सुख है...
और इस सुख को मैंने कभी अपने इस पुराने सूटकेस में,
गिरने नहीं दिया।
इसे हमेशा अपने पास रखता हूँ।
जिन सुखों को जी नहीं पाया...
उन सुखों को महसूस करना कि, कभी इन्हें जी सकता था।
ये अजीब सुख है।
और जिन सुखों को मैं जी चुका हूँ,
उनका अपना अलग बोझ है,
जिसे ढ़ोते-ढ़ोते जब भी थक जाता हूँ....
तब अपना पुराना सूटकेस खोल लेता हूँ...
और थोड़ा हल्का महसूस करता हूँ।

सोमवार, 9 जून 2008

मानव...



मुझे हर बार मानव होने में कितना वक्त लगता है।


मैं हसंता हूँ....
जैसे कुछ छूट जाता है।


चुप होता हूँ...
तो कोई पास आकर फुसफुसाता रहता है।


जब तक बोलता हूँ...
कोई दिखता नहीं है।


चुप होते ही जंगली कुत्ते चारों ओर से धेर लेते है...
जैसे मैं कोई धायल जानवर हूँ।


और बाक़ी सब ताली बजाने और बजवाने के बीच के खेल हैं।


मेरे तुम्हारे, होने और नहीं होने में...
कोई एक आदमी था जो चल रहा था।
वो आज भी चलता है।
अभी... ठीक इसी वक्त...
वो मेरे बगल में खड़ा है।
नहीं वो मैं नहीं हूँ...।


मुझे तो मानव होने में बहुत वक्त लगता है।

बुधवार, 28 मई 2008

एक शब्द...


एक शब्द...
थर-थर कांपता-सा,
पन्ने पर गिरा।
एक कहानी...
कविता के सुर में कही गई और नहीं कहीं गई,
जैसी बातों में पूरी हुई।
नाटक के से सुर में मैंने उसे,
डरते-डरते पढ़ा।
कहीं एक बच्चे ने,
थमे हुए पानी में एक पत्थर फैंका...।
और कहीं दूर,
अबाबील नाम की चिड़िया उड़ गई।

रविवार, 13 अप्रैल 2008

भाग्य रेखा...



मेरे हाथों की रेखाएँ,
तुम्हारे होने की गवाही देती हैं


जैसे मेरी मस्तिष्क रेखा....
मेरी मस्तिष्क रेखा,
तुम्हारे विचार मात्र से,
अन-शन पे बैठ जाती है।


और मेरी जीवन रेखा
वो तुम्हारे घर की तरफ मुड़ी हुई है।


मेरी हृदय रेखा
तुम्हारे रहते तो ज़िन्दा हैं,
पर तुम्हारे जाते ही धड़्कना बंद कर देती हैं।


बाक़ी जो इधर उधर बिखरी रेखाएं हैं
उनमें कभी मुझॆ तुम्हारी आंखें नज़र आती हैं
तो कभी तुम्हारी तिरछी नाक़।


पंडित मेरे हाथों में,
कभी अपना मनोरंजन तो कभी
अपनी कमाई खोजते हैं,
क्योंकि....
मेरे हाथो की रेखाएं मेरा भविष्य नहीं बताती
वो तुम्हारा चहरा बनाती हैं,


पर तुम्हें पाने की भाग्य रेखा
मेरे हाथों में नहीं है।

रविवार, 16 मार्च 2008

'पर जंग कभी हुई नहीं...'



पर जंग कभी हुई नहीं...


चाकू, भाले, तलवारों में धार तेज़ थी।
रणनीतियों की किताबें हम,
घोंट-घोंट कर पी चुके थे,
बदले की भावना से सब ओत-प्रोत थे।
पर जंग कभी हुई नहीं।


जंग शुरु होने के पहले की तैयारियाँ...
हमने तब से शुरु कर दी थी, जब से
'जंग' शब्द का अर्थ,
हमारी समझ में आया था।
जंग कभी भी हो सकती है- का माहौल हमने,
किस्से कहानियों से लेकर यथार्थ तक,
हर जगह बना रखा था।
पर जंग कभी हुई नहीं।


जंग के लिए एक खुला मैदान चाहिए,
खुले मैदान से विचार हमने हर जगह जमाए।
जंगल मैदान किए- शेर,चीते, हाथी सभी मैदान हुए।
खुले मैदान के लिए हम खुद.
ऊँची-ऊँची बिल्डिंगो के पिजरों में कैद हुए,
पर मैदान में रात भर कुत्ते रोते रहे....
और जंग कभी हुई नहीं...


दुश्मन अगल-बगल ही कहीं छुपा था।
उसके अईय्यार्, भीतर-बाहर,
हर जगह मौजूद थे।
यहां हमारी सेना भी तैयार थी...
अय्यारी के मुखौटे, हम भी बदलना सीख चुके थे।
पर दुश्मन छुपा ही रहा...
और जंग कभी हुई नहीं...


दुश्मन चालाक है- दुश्मन से डरो,
एसा करो-एसा मत करो,
जैसे वाक्य सभी जगह-
इश्तहारों, दीवारों पर चिपके थे।
यूँ दुश्मन को हमने कभी देखा नहीं..
पर उसके कल्पना चित्र,
पूरे बाज़ार में बिक रहे थे।
जब हम जवान थे-या-जब भी हम जवान हुए,
वक़्त-बे-वक़्त हमने, हम सभी ने...
अपनी-अपनी ज़ुबान में,
अपने दुश्मन को एक बार तो ललकारा है।
पर दुश्मन कभी सामने आया ही नहीं...
और जंग कभी हुई नहीं...


डर एक रस्सी है,
जिसपर हम सब लटके हैं,
गर ज़मीन पर चलेंगें तो दुश्मन कभी भी धर-दबोचेगा।
इस डर ने ही हमसे ये रस्सी बुनवाई है...
अब हम लटके रहना चाहते हैं,
'अंत तक लटके रहने की चाह में...'
इसी रस्सी से हम खेलते हैं...
रस्सी पर चलते हैं...
रस्सी बिछाते हैं...
रस्सी ओढ़ते हैं...
रस्सी का एक देवता भी हमने बना रखा है।
उसे बचाने के लिए.. हम सब लड़ मरेंगें।
पर असल में...
रस्सी कभी थी ही नहीं...
और जंग कभी हुई नहीं।

बुधवार, 12 मार्च 2008

छूटी हुई जगह...


दो बातों के बीच की चुप्पी,
और...
हम दोनों के बी़च की ये छूटी पड़ी हुई जगह।
उतना ही ईश्वर...
अपने बीच पाले बैठी हैं,
जितना...
हमारी एक दूसरे से...
कभी न कही गई,
असहनीय बातें।

मंगलवार, 11 मार्च 2008

दहलीज़ पार...



तुम्हारी दहलीज़ पर खड़े रहकर,
कितनी ही बार मैंने कसम खाई है कि-
'नहीं..मैं भीतर नहीं जाऊगां।'
'मैं दरवाज़ा भी नहीं खटखटाऊगां...ना।'

और कुछ ही देर में मैं तुम्हारे साथ,
तुम्हारे बगल में पाया जाता हूँ...
और भीतर पड़े हुए,
दहलीज़ पर खाई हुई अपनी कसमों को याद करता हूँ।

उन बचकाने कारणों के बारे में सोचता हूँ,
जिन्होने मुझे फिर एक बार...
दहलीज़ के इस तरफ...
तुम्हारे बगल में लाकर बिठा दिया।

सच मुझे हँसी आती है,
कैसे हैं ये कारण-
- यहाँ से गुज़र रहा था सोचा तुमसे मिलता चलूं...
- कल रात तुम्हारा सपना देखा तो मुझे लगा कि....
- आज मैं बहुत खुश हूँ इसलिए...
- हममम...!!!
- आज दिन बहुत उदास है.. तुम्हें नहीं लगा?...
- तुम्हारी माँ की बड़ी याद आ रही थी तो...
- सरप्राईज़... !!!
- नई कविता लिखी है, सोचा तुम्हें सुना दूं तो...
- एक चाय पीने की इच्छा थी इसलिए...
और...
- तुम्हें बस एक बार देखना चाहता था।

'तुम्हें बस एक बार देखना चाहता था'-
वाली बातों ने हमेशा मुझसे..
तुम्हारा ये दरवाज़ा खुलवाया है।

इन कसमों- कारणों के बारे में,
मैंने तुम्हें कभी नहीं बताया...
और शायद कभी बतऊंगा भी नहीं।

बस तुम्हारे बगल में बैठे हुए...
तुम्हारी बातें सुनते- कहते हुए...
मुझे उन कसमों और कारणों के बारे में सोचना,
अच्छा लगता है।

रविवार, 9 मार्च 2008

'बल...'



बल...
बल क्या शब्द है?
कैसे इसका अनुभव हो !!!


बल नहीं समझा, तो क्या मैं निर्बल हूँ !!
निर्बल.. रक्षा जानता है।


अरे हाँ! .. रक्षा,
रक्षा करते रहने का एक संस्कार है।
'किससे'.. शब्द उसमें नगण्य है।


रक्षा समझ में आता है.. पर बल क्या है?
मुझमें बल है कि मैं...
इतना वज़न एक बार में उठा सकता हूँ!!!


नहीं, बल शब्द का अर्थ इससे पूरा नहीं होता।
कुछ और जो हमें बल देता है।
और जब भी बल होता है...
जैसे- कुछ कर देने का ...
कह देने का...
रह या सह लेने का...
तब भी, उससे भी कहीं अधिक बल...
छूटा रह जाता है,
.....'पाया जा सकता है'-
की आशा लिए।

इसका मतलब...
'बल एक शब्द है...,
जिसे पूरा अनुभव करने का बल,
हमेंशा सामने छूटा पड़ा रहेगा,
उसे उठा लेने का बल हमारे पास
कभी नहीं होगा।'

इसमें 'उठा लेना'..
शब्द नगण्य है।

'सही है...।'



सभी कह कह कर थक गए...
मर गए...
चले गए...
वहीं से हमने फिर कहना शुरु किया,
वैसा का वैसा..
रटा हुआ सा..
और सबने कहा... सही है।


लोगो के काम किए हुए सा चित्र..
हमने उन्हीं के सामने बना दिया,
कुछ काम किया है- का भ्रंम,
थोड़ा खुद को दिया...
थोड़ा लोगो में बाट दिया।
और सबने कहा... सही है।


हम अपना जीवन..
यूँ ही नहीं काट रहे हैं- के जवाब देते-देते,
थके हुए से हम...
वहीं नीरस चढ़े हुए फिर से चढ़ने लगे।
शिखर पर जगह बनाकर...
थोड़ा इसको हिलाकर..
थोड़ा उसको खिसकाकर...
हम बैठ गए..
फिर लेट गए..
और फिर सो गए।
सबने कहा... सही है।

सबसे पहले हमने क्या खाना सीख़ा,
अंड़ा या मुर्गी।
इस प्रश्न से जब हम बोर हुए तो...
इन्सान के अलावा जो भी चीज़ धरती पर हिली,
हमने उसे खुलेआम खाना सीख लिया।
एक बार मेरे खाने में एक बच्चे की उगंली मिली,
मैं डर गया...
इससे पहले कि लोगों को पता लगे कि...
हम इन्सान भी खाने लगे है..
मैं तुरंत उगंली गटक गया।
एक डकार ली और कहा-
'यार मटन कड़्वा था.. यार!!!
आदमी का था क्या?'
कुछ लोग हंसे...
और कुछ ने कहा... सही है।

'हम सब किसी मकसद से पैदा हुए है'- से विचार,
हम सबने...
दूध में घोल-घोल कर,
बचपन से पिए हैं।
फिर वो कहानियाँ भी हमने पढ़ी हैं...
रटी हैं...
जिन्होने हमें तो बोर किया,
पर उन्होने, हज़ारों मक़्सदो सी दीवारें,
हमारे चारों तरफ खड़ी कर दी।
अब मक़्सद नाम का मेरा घर है...
दूध पचता नहीं है...
हर सुबह एक अंगड़ाई लेकर कहता हूँ-
'कुछ करना है यार...'
और सब कहते हैं... सही है।

बहुत अमीर आदमी को..
बहुत अमीर आदमी बनाने के लिए...
हमने बहुत पढ़ाई की।
बहुत अमीर आदमी कभी,
बहुत अमीर आदमी नहीं हुआ।
हम बहुत पढ़ाई करने के बाद भी,
उसे बहुत अमीर आदमी नहीं बना पाए।
फिर हमने अपने बच्चे पैदा किए।
ढ़ेरों बच्चो को...
ढे़रों किताबों से लादकर..
उसी अमीर आदमी के बनवाएं स्कूलो में..
हमने उन्हें ढूस दिया।
स्कूल में बच्चों से पूछा-
'किसके बेटे हो।'
अमीर आदमी ने सिखाया-
'भगवान के...'
और हम सबने कहा...सही है।
सही है... सही है।

'शुरुआत..'



'अंत में सबकुछ अच्छा होगा'- का सुख,
शुरुआत कराता है।


शुरुआत अंत का सपना लेकर साथ निकलती है।
वो अंत में अंत से मिलेगी...
और फिर सब सब अच्छा होगा।


शुरुआत पैदा होने की सारी तकलीफ़े झेलती है,
वो अपने बालों को उलझाती हुई,
हर नए मोड़ पर अंत को याद करती है।
वो हंसती है, रोती है,
चिल्लाती है... कभी-कभी रुक जाती है।
कहां से वो चली थी...
और कहां तक उसे जाना है।


जैसे-जैसे अंत पास आता है,
शुरुआत अपने नए-नए रुप बदलती है,
उसकी आँखे छलक जाती है।
वो अपने बालों को सुलझाने लगती है,
वो गाती है.. मुस्कुराती है।
अंत से कहना चाहती है-
'देखो मैं आ गई'


धीमे कदमों से चलता हुआ अंत होता है।
और फिर...
सबकुछ अच्छा होने लगता है।
पर अंत...
अंत में शुरुआत को भूल जाता है।

'जूता...'




'जूता जब काटता है...

तो जिन्दगी काटना मुश्किल हो जाता है।

और जूता काटना जब बंद कर देता है...

तो वक्त काटना मुश्किल हो जाता है।'

'जुगाली...'



थोड़ी देर तक साथ रहेंगें...
पर काफ़ी देर तक साथ रह्ते हैं।


घड़ी की सुई और दिन का ढलना...
पकड़ के बाहर है।
पर अभी जो पकड़े हुए हूँ.. तुम्हारा हाथ,
उसे मत छुड़ाना।


बस अभी चले जायेंगें-
पर देर तक बैठे रहते हैं,
और मैं सुनता हूँ..
तुम्हारा थोड़ा बोलना... देर तक।


पर समय है कि भाग रहा है,
मैं इस समय को,
गाय की तरह बहुत सारा निगल जाना चाहता हूँ।
मुझे पता है तुम बस अभी चली जाओगी,
पर मैं बैठा रहूँगा देर तक...
यहीं इसी जगह पर,
और गाय की तरह जुगाली करता रहूँगा,
उन सभी बातों की जो तुम,
अभी-अभी कह नहीं पाई थी...देर तक।

'बाज़ार...'



कब हमें हमारा जंगल मिलेगा?,
कब तक हम यूँ ही उगते फिरेंगें?


रोज़ दिन बीतने की गति में....मैं..
बार-बार बोया गया बीज की तरह।
अब मैं हर कहीं उगता फिरता हूँ...
बार-बार पैदा होने की गति में।


भीतर बहुत बार पैदा हुआ मैं,
इस भीड़ में.. अपनी बहुत सी भीड़ लिए,
एक बार फिर जनने की तैयारी करता हूँ ।
कहीं ज़मीन उपजाऊ है, तो कहीं बंजर है।
पर इस लगातार चल रहे संभोग में...
अब ज़मीन भी माने नहीं रखती,
संभोग इतना आँखो के सामने है,
कि भीतर किसका जंगल है, ये जानना मुश्किल है।


इस सब में-
'मैं कौन था?' से 'मैं कौन हूँ?' तक के सारे विचार,
इस जंगल में लुप्त होते जानवर हैं।


अब जो भीतर बचा हुआ जानवर कभी दहाड़ता है,
वो दहाड़..
ऊपर आते-आते एक ऎसे शब्द का रुप ले लेती है।
कि हम अंत में किसी न किसी का प्रचार करते पाये जाते हैं।


इस पूरे बाज़ार में,
ये प्रश्न कितना हास्यास्पद हो जाता है-
कि कब हमें हमारा जंगल मिलेगा?,
और कब तक हम यूँ ही उगते फिरेंगें?

शनिवार, 8 मार्च 2008

गलियां.. पगडंडियां



बहुत समय तक गलियों और पगडंडियों में जी लेने के बाद,
सीधी चौड़ी सड़क पर चलना...
अपनी ही गलियों और पगडंडियों से बेइमानी करना लगता है।
कुछ कहीं रोक लेता है...
पीछे खींच लेता है।
एक धना पेड़...
नदी का किनारा...
कुछ किताबें...
छोटी-छोटी बहुत सी बातें कहने की इच्छा से...
गुदे हुए पन्ने...
सभी सामने तैरने लगते हैं।
कभी इच्छा होती है कि सब भूल जाऊँ,
चल दूँ इस डामर की सड़क पर...
कुछ कदम तो रखना है, फिर ये भीड़..
खुद-ब-खुद बहा ले जाएगी।
और मैं गोल-गोल सबके साथ घूमने लगूँगा।

पर आगे कहीं,
सड़क के किनारे,
अगर एक पगडंडी पड़ी मिल गई तो!!!
तो क्या करुंगा...
शायद मुँह छिपा लूंगा,
या कह दूंगा कि- 'जल्दी आता हूँ'..
और भीतर प्रार्थना करुंगा कि कहीं ये झूठ पकड़ा न जाए।
पर अगर पगडंडी ने मुझसे पूछ लिया कि-
'कैसा लग रहा है... वहां?'
तो क्या जवाब दूंगा।
रो दूंगा शायद... अपनी बेइमानी पर,
या कह दूंगा-
'अजीब सवाल है!'
और फिर मुँह फेरकर गोल-गोल घूमने लगूंगा,
ये सोचते हुए कि-
'सच में.. कैसा लग रहा है... यहाँ?'

बहुत समय तक गलियों और पगडंडियों में जी लेने के बाद,
सीधी चौड़ी सड़क पर चलना...
अपनी ही गलियों और पगडंडियों से बेइमानी करना लगता है।
पता नहीं...
पर जब भी मैं इस डामर की सड़क को देखता हूँ,
तो मुझे मेले में देखा हुआ अंधे कुंए का खैल याद आता है।
मुझे उस खैल दिखाने वाले पर बड़ी दया आती थी।
सो एक बार मैं...
खैल के बाद उससे मिला...
और चिल्लाने लगा...
ये क्या खैल है?
एक ही जगह गोल-गोल धूमने का?
क्या मिलता है तुम्हें?
क्यों करते हो ऎसा?
वगैरह-वगैरह!
उसने मेरा हाथ पकड़ा और खीचकर..
कूंए के भीतर ले गया और कहा-
'ऊपर देखो'
मैंने देखा कुंए के चारों तरफ...
मुझे सिर्फ लोगों के सिर दिखाई दे रहे थे,
जो उसे देखते ही दोनों हाथ उठाकर चिल्लाने लगे।
उसने कहा-
'ये इतने सारे लोगों की अपेक्षा है कि मैं फिर,
बार-बार,
लगातार गोल-गोल घूमता रहूँ।'

ये बात मुझे तब समझ में नहीं आई थी,
पर अब लगता है.. वो सही था।
हमारा चलना- 'अपेक्षा के गोल चक्करों से होता हुआ,
अपेक्षित के गोल चक्कर बनाने तक है।'

पर इसमें एक बात..
जो लगातार मुझे कहीं-न-कहीं रोक लेती है कि-

बहुत समय तक गलियों और पगडंडियों में जी लेने के बाद,
सीधी चौड़ी सड़क पर चलना...
अपनी ही गलियों और पगडंडियों से बेइमानी करना लगता है।

'दंगों के हम...'



एक दिन कोई बोलेगा- 'उठो',
और हम सब उठ जायेंगें।


जो जी रहे थे ...
वो सपना था।
हम डर जायेंगें...
ढूढेंगे उसे जिसने उठाया था।
पर वो कहीं नहीं होगा।


हमारे जिये की दुनियावी धूल झाड़कर,
बस एक बच्चों का सा सच, सामने खड़ा होगा।


जो अब तक पता नहीं किया वो सबको..
खुद-ब-खुद पता लग जाएगा।
जिसके लिए हम लड़ते रहे... वो असल में था ही नहीं।


हम घबरा जाएंगें...
क्योंकि अब सामना करना होगा...
सबको सबकी आँखो का।
फिर हम सब रोने की कोशिश करेंगें...
पर रो नहीं पाएंगें...।
हँस तो सकते ही नहीं..
क्योंकि..
जैसा जिया है... हमने ही जिया है।
जो किया है... हमने ही किया है।


बस एक दूसरे के लिए बहुत सारे प्रश्न होंगें हमारे पास..
पर पूछ नहीं पाएगें।
क्योंकि जवाब सबको पता होगें...
और वो इतने शर्मनाक होंगें...
कि हम छोटे होते जाएंगें।
इतने छोटे कि एक दूसरे को देख भी नहीं पाएंगें..।


और फिर हम सब भागना शुरु करेंगें... बदहवास से...
उस आदमी की तलाश में...
जो बोलेगा...-'सो जाओ'
और हम सब फिर से जीने लगेंगें।

मंगलवार, 4 मार्च 2008

'थामूं तुम्हारा हाथ'



'थामूं तुम्हारा हाथ'-
इस वाक्य के पीछे हमारे,
साथ जिए की पता नहीं कितनी कहानियाँ...
तुम मेरी आँखो में ढूँढती हो..
जब मैं तुमसे कहता हूँ...
'थामूं तुम्हारा हाथ'


पता नहीं क्यों?
पर तुम यूं ही अपना हाथ आगे नहीं बढाती हो..
तुम मेरी आँखो में एक कहानी टटोलना शुरु करती हो...
जिसका अंत 'थामूं तुम्हारा हाथ'- को बनाकर तुम..
अपना हाथ मेरे हाथ में दे सको।


बस यहीं... ऎसी ही जगह...
यूं ही कहे गए मेरे वाक्य,
मुझे बोझ लगने लगते हैं।


मैं चाहता हूँ सच कहना...
कि मेरे-'थामूं तुम्हारा हाथ' के पीछे... सिर्फ खालीपन है..
एक मंदिर की तरह...
उस मंदिर की तरह जिसका कोई देवता न हो।


खैर..
'थामूं तुम्हारा हाथ'- कहते ही सब कुछ,
थोड़ी देर के लिए रुक गया।
तुम्हारा हाथ...
मेरा सच...
हम दोंनों...


तुम्हारी आँखे, एक बच्चे जैसी, कहानी की ज़िद करने लगी...
और मेरा बोझ चेहरे से शरीर में उतरने लगा।


पर मेरी आँखे इस बोझ में भी हल्की थी,
क्योंकि वो इस वक्त खून कर रही थी..
उस मासूमियत का...
जिससे मैंने यूं ही तुम्हें कह दिया था..-
'थामूं तुम्हारा हाथ'


'तुम्हारी आँखे कहीं मेरी आँखो से हट न जाए'- के डर से..
इस बीच..
मैं कई देवता तुम्हारे सामने रखता हूँ,
जिसे तुम्हारी आँखे उस मंदिर में देखना चाह रही थी।


अचानक...
सब रुका हुआ थोड़ा हरकत करता है...
तुम्हारा हाथ ढीला पड़ने लगता है...
आँखे नीचे झुकने लगती हैं...


जल्दी में...
मैं एक देवता को चुनकर...
तुरंत उस मंदिर में स्थापित कर देता हूँ।
और तुम एक सांत्वना भरी मुस्कान देके..
मुड़ जाती हो...।

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

'धुंध...'



एक धुंध है-
जो धीरे-धीरे, परत-परत
सब कुछ भुलाती जाती है।


एक इच्छा है-
जो कहती है.. चल,
फिर हल्के-हल्के उस धुंध को मिटाती जाती है।


एक मन है-
जो कुछ नया जीने में धुंध को धुंआ देता है,
और अपने ही जीए हुए साल के साल गायब हो जाते हैं।


कुछ चेहरे हैं-
जो इसलिए धुंध में खो गए थे,
कि हम बड़े हो सकें...
और हम बड़े होते गए।


एक आस्था है-
जो उस माँ की तरह है,
जो मरने तक आपका साथ देती है।


एक हमारी आस्था है-
जो उस माँ की तरह है,
जो हमेशा दरवाज़ा खटखटाती रही...
पर हम घर पर थे ही नहीं।


एक दुनिया है-
जो कैसे चलती है का पता नहीं है,
पर इस दुनिया में मैं कैसे चलूँगा...
की ज़िद्द बड़ी है।


एक ज़िद्द है-
जो उस मकान की तरह है,
जिसकी किस्तें आपको पूरी ज़िंदगी देना पड़ता है।


एक दर्द है-
जो दीवाली के पटाखों की तरह आस पास ही फूटता है,
और अगर नहीं फूटे...
तो अचानक फूट पड़ेगा का डर हमेशा बना रहता है।


एक लड़ाई है-
जो बड़े दुश्मन के खिलाफ़ शुरु हुई थी,
पर अब बहुत से कारणों के साथ...
सारे विरोधी.. अपने ही खेमे में हैं।


कुछ तर्क हैं-
जो छुट्टे पैसों की तरह..
लोगों की जेबों में पड़े रहते हैं...
जब भी चलते हैं.. खनक उठते हैं।


एक धर्म है-
जो रात में आपके उस काम की तरह होना चाहिए...
जिसकी चर्चा आप सुबह...
अपनी माँ से नहीं कर सकते।


एक धर्म है-
जो उस पहलवान की तरह हो गया है...
जिसके नाम की आड़ में कोई भी पत्थर चला सकता है।


एक अकेलापन है-
जो उस फोड़े की तरह है,
जिसके साथ रहने की अगर आपको आदत न हो...
तो वो नासूर बन जाता है,
और अगर आदत पड़ जाए...
तो अकेले.. उसे खुजाने में बहुत मज़ा आता है।


एक खोज है-
जो घर में चश्मा ढूँढने जैसी है...
जब ढूँढ-ढूँढकर थक जाओ...
तब मुँह पे पड़ा मिलता है।


एक भगवान हैं-
जो सर्कस के जोकर हो गए हैं,
जब तक चमत्कार दिखाएंगे...
इस सर्कस में बने रहेंगें।


एक अहिंसा है-
जिसका सिक्का लिए..
गाँधी जी हर शहर के बीच में खड़े हैं।
पर जब भी सिक्का उछालते हैं..
हिंसा ही जीतती है।


एक त्रासदी है-
कि हमें कविताएं समझ में नहीं आती...


एक त्रासदी है-
कि हम सब जानते हैं...


और एक त्रासदी है-
कि ये सपने हैं...
पता नहीं क्यों?
साले अभी भी आते हैं।

'हँसना, मुस्कुराना!'



अब मैं एक तरीके से मुस्कुराता हूँ,
और एक तरके से हँस देता हूँ।

जी हाँ, मैंने जिंदा रहना सीख लिया है।


अब जो जैसा दिखता है,
मैं उसे वैसा ही देखता हूँ।
जो नहीं दिखता वो मेरे लिए है ही नहीं।


अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,
मैं एक सफल मध्यमवर्गीय रास्ता हूँ।
रोज़ घर से जाता हूँ,
रोज़ घर को आता हूँ।
अब मुझ पर कुछ असर नहीं होता।


या यूँ समझ लीजिए कि,
मेरी जीभ का स्वाद छिन गया है।
अब मुझे हर चीज़ एक जैसी सफेद दिखती है।


अब मुझे कुछ पता नहीं होता,
पर 'सब जानता हूँ'- का भाव मैं अपने
चहरे पर ले आता हूँ।


हर किस्से पर हँसना, आह भरना, मैं जानता हूँ।


अब मैं खुश हूँ...
नहीं- नहीं खुश नहीं,
अब मैं सुखी हूँ- सुखी।


क्योंकि अब मैं बस जिन्दा रहना चाहता हूँ।
अब ना तो मैं उड़ता हूँ, ना बहता हूँ।
मैं रुक गया हूँ...
आप चाहे कुछ भी समझो...
मैं अब तटस्थ हो गया हूँ।
अब मैं यथार्थ हूँ।
नहीं- यथार्थ-सा हूँ।


"मुझे अपनी कल्पना की गोद में सर रखकर सो जाने दो,
मैं उस संसार को देखना चहता हूँ,
जिसका ये संसार... प्रतिबिंब है।"-
अब ये सब बेमानी लगता है।


अब तो मेरा यथार्थ...
मेरी ही पुरानी कल्पनाओं पे हँसता है।


अरे हाँ !!! आजकल मैं भी बहुत हँसता हूँ।
कभी कभी लगता है ये बीमारी है...
पर ये सोचकर फिर हँसी आ जाती है।


अब सब चीज़ जिस जगह पर होनी चाहीए...
उसी जगह पर है।
ये सब काफी अच्छा लगता है।
अच्छा नहीं,
ठीक- हाँ ठीक लगता है।


पर...
पर एक परेशानी है!
अजीब सी, अधूरी...
क्या बताऊँ... मुझे आजकल रोना नहीं आता।
अजीब लगता है ना,
पर ये अजीब सच है,
मुझे सच में रोना नहीं आता।


जैसे- अब मुझे सुख या दुख से...
कोई फ़र्क नहीं पड़ता,
क्योंकि वो जब भी आते हैं...
एक झुँझलाहट या एक हँसी से तृप्त हो जाते हैं।


अजीब बात है न...
नहीं, ये अजीब बात नहीं है,
ये एक अजीब एहसास है....
जैसा कि- आप मर चुके हो और कोई यकीन न करे।


रोज़ की तरह लोग आपसे..
बातें करें...
चाय पिलाएं...
आप के साथ धूमने जाएँ...
और सिर्फ आपको ये पता हो कि अब आप ज़िन्दा नहीं है।


मैं जानता हूँ..
ये एक रुलादेने वाला एहसास है।
पर..
आप आश्चर्य करेंगे...
फिर भी मुझे आजकल रोना नहीं आता।

'विश्वासघात..'



'दुनिया चल रही है'- में..
मैं हर रात सोता हूँ लगभग..


एक विश्वास के साथ,
कि मैं हर सुबह उठूंगा
और वहीं से... फिर से जीना शुरु कर दूंगा,
जहां से मैंने- पिछली रात जीना छोड़ा था।


ये मृत्यु को चख़ने जैसा भी है,
उसका स्वाद लेना
और फिर जीने लगना।


हर बार ऎसा करते रहने में...
उस विश्वास में विश्वास इतना बढ़ जाता है कि-
'मृत्यु को चख कर वापिस आना'
स्वाभाविक लगने लगता है...
सामान्य सी बात।


पर तभी..
उस क्षण आप डर जाते हैं,
जब किसी सुबह आप हड़बड़ा कर उठते हैं।
कुछ समय लगता है... वापिस,
फिर इसी दुनियाँ में आने में।
क्या था ये?
नींद?
या मृत्यु?
सपना कुछ भी नहीं था,
बस एक काली छाया थी।
जिसे आप जैसे-तैसे चकमा देकर बाहर निकल आए,
वापिस इस दुनियां में।


और तब पहली बार...
आप उस विश्वासघात को सूंघ लेते हैं,
जो आज तक आपके साथ,
विश्वास नाम से बड़ा हो रहा था।

'बीमारी..'



खुद-ही का चला हुआ,
पराए लोगों की तरह याद आता है।
और जो अभी चलना है,
वो दिखते ही थका देता है।


फिर मैं चल नहीं पाता..
मैं बैठ जाता हूँ...


हर ऎसे समय,
अपने साथ काफी समय बैठने के बाद,
मैंने जब भी अपनी जेब में हाथ डाला है।
मुझे वहाँ लोग पड़े मिले हैं।


जेब के कोनो में...
अपनी सारी जटिलता लिए,
चुप-चाप,
दुबके-सहमे..बीमार लोग।


ग़लती मेरी ही है।
मैं ही इन सबका इलाज,
दूसरो की जेबों,
और आँखो में ढूँढता हूँ।


इन सभी की कहानियाँ कह्के,
मैं इन सबका इलाज कर सकता हूँ...


पर इसके लिए मुझे एक बीमारी चाहिए,
जिसका,
इन लोगों की तरह मुझे भी इंतज़ार है।

सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

'तुम्हारी उंगलियाँ...'



खामोश एक आवाज़ आती थी,
और मैं कहानी सुनना शुरु कर देता था।

कहानियाँ... हमारा पूरा संबंध ये शब्द है।
कहानियाँ...
मुझे पता ही नहीं चला कब,
तुम्हारी उंगलियों ने कहानी कहना सीख लिया।

कब...
वो कौन सा पहला मौका था,
जब तुम्हारी उंगलियां हिली थी,
और मैंने एक कहानी को बाहर निकलते हुए देखा था..
धीरे से।

वो कहानी, अब मुझे याद नहीं,
पर मुझे याद है- मैं हस दिया था।
तुमने पूछा था-
'क्यों... हँस क्यों रहे हो?'
मैंने कहा था-
'बेवजह...'
हाँ, बेवजह ही कहा था मैंने।

क्या वजह है, जो मैं ये हमारा 'कहानी का संबंध"
तुम्हीं से नहीं कह सकता हूँ,
तुम्हारा वो कौन सा हिस्सा है,
जो इसे मेरे साथ जी रहा होता है,
जिसके बारे में तुम्हें ही नहीं मालूम।
और फिर तुम आश्चर्य से पूछती हो-
'क्यों?, मुस्कुरा क्यों रहे हो?'
और मैं कह देता हूँ-
'बेवजह..'

तुम्हारी कहानियाँ...
मैंने कहानी की उस दुनियां को देखा है... जिया है।
जो तुम्हारी उंगलियां यूँ ही कह देती थीं।

मैं कभी-कभी सोचता हूँ,
कि मैं किसे ज़्यादा चाहता हूँ?
तुम्हें...
या तुम्हारी उंगलियों को जो कहानी कहती हैं।

मैंने कई बार तुम्हारी उंगलीयों पर,
अपना हाथ रख दिया है और पूछा है-
'कैसी हो?'...
बेवजह...
सच बेवजह !!!

असल में तुम्हारी कुछ कहानियाँ सच कहती हैं।
सीधा..
हमारा..
सपाट... सच।
जिसे मैं नहीं जानना चाहता।

मुझे घर में दीमक जैसे सच ठीक लगते हैं।
जो घर मैं हैं.. ये दोनों को पता है,
पर वो दिखे न..
उन्हें 'पता है'- की आड़ में रहने दो।

पर जब वो दीमक जैसे सच...
तुम्हारी उंगलीयों से बाहर कूदने लगते हैं...
तब..
मैं अपना हाथ तुम्हारी उंगलियों पे रखता हूँ,
और पूछता हूँ-
'कैसी हो... बेवजह'।

'परछाईंयाँ...'





मेरी परछाईयों के अंधेरे में,
पता नहीं कितनी परछाईयाँ दबी हैं, छिपी हैं।



वो जो कभी मेरे साथ थी,
और वो जो कभी थी ही नहीं।



जाने कितनी परछाईयों के अंधेरे कोने,

मेरी परछाई में छूट गये हैं।
कई परछाईयाँ अपने बाल छोड़ गयीं।
कई अपनी आँखे,
तो कईयों की सिर्फ उँगलियाँ ही मेरे पास है।



अब ये छूटे हुए अंधेरे,
मेरी परछाईं की तरफ देखकर ताकते हैं...
कुछ रंग ढूँढ़ते हैं...
तो कुछ शब्द...।



मैं अपनी परछाईं का बढ़ता हुआ मौन महसूस करता हूँ।



पर क्या करुं?
मैंने ही अपने हाथों से,
ये सारे परछाईंयों के अंधेरे बटोरे हैं।
और अब अपनी ही परछाईं के साथ चलने में...
आजकल मैं थक जाता हूँ।

'शक्कर के पांच दाने'



शक्कर के पाँच दाने जादू हैं।
जिनके पीछे चीटियाँ भागती हैं।


दो दानों पर पहुँचती हैं,
तीन आगे दिखते हैं।
भागकर बाक़ी सारी चीटियों को बुला लेती हैं।


पाँचवे दाने पर पहुँच जाती हैं,
मगर पीछे के दो दानों को भूल जाती हैं।
फिर वही दो दाने आगे मिलते हैं।
वो जादू में फस जाती हैं,
और घूमती रहती है।


ये खैल कभी खत्म नहीं होता।
क्योंकि चींटियाँ तलाश रहीं हैं, खेल नहीं रही।
जादूगर एक है जो खैल रहा है।

'एक पल'



वक्त इतना छोटा हो गया था,
जैसे हाथ में बंधा हो।
जगह इतनी बड़ी हो गई थी,
जैसे उसका चश्मा आँखो में लगा हो।

इसी,
जगह-और-वक्त के बीच में कहीं,
एक पल हमने जिया है।

उस पल में-
एक पगडंडी थी,
जिसके बगल से पानी बह रहा था।

उसमें पेड़ से अभी-अभी गिरे एक पत्ते सा,
हमारा वर्तमान बह रहा था।

उस सूखते हुए वर्तमान में तभी मैंने,
अभी-अभी जिए हमारे पल का संघर्ष देखा।

वो एक कीड़े सा,
उस सूखते हुए पत्ते के छोर पर,
निकलकर बैठ गया था।

मानो वो अतीत के गहरे समुद्र में,
एक स्वप्निल याद सा,
बचा रह जाना चाहता हो।

'चोरी से...'



बहुत पहले...
अब तो मुझे याद भी नहीं कब,
मैंने अपने हाथ पर लिख दिया था- 'प्रेम'।


क्यों ? क्यों का पता नहीं,
पर शायद ये-
मेरे भीतर पड़े सूखे कुंए के लिए,
बाल्टी खरीदने की आशा जैसा था।
सो मैंने इसे अपने हाथ पर लिख दिया-'प्रेम'।


आशा?
आशा ये कि इसे किसी को दे दूंगा।
ज़बरदस्ती नहीं, चोरी से...


किसी की जेब में डाल दूंगा,
या किसी की किताब में रख दूंगा,
या 'रख के भूल गया जैसा'- किसी के पास छोड़ दूंगा।


इससे क्या होगा ठीक-ठीक पता नहीं...
पर शायद मेरा ये- 'प्रेम'
जब उस किसी के साथ रहते-रहते बड़ा हो जाएगा,
तब...
तब मैं बाल्टी खरीदकर अपने सूखे कुंए के पास जाउंगा,
और वहां मुझे पानी पड़ा मिलेगा।


पर एसा हुआ नहीं,
'प्रेम' मैं चोरी से किसी को दे नहीं पाया,
वो मेरे हाथ में ही गुदा रहा।


फिर इसके काफी समय बाद...
अब मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कब,


मुझे तुम मिली और मैंने,
अपने हाथ में लिखे इस शब्द 'प्रेम' को,
वाक्य में बदल दिया।
"मैं तुमसे 'प्रेम' करता हूँ"
और इसे लिए तुम्हारे साथ घूमता रहा।
सोचा इसे तुम्हें दे दूंगा।
ज़बरदस्ती नहीं.... चोरी से,


तुम्हारे बालों में फसा दूंगा,
या तुम्हारी गर्दन से लुढ़कती हुई पसीने की बूंद के साथ,
बहा दूंगा।
या अपने किस्से कहानियाँ कहते हुए,
इसे बी़च में डाल दूंगा।


फिर जब ये वाक्य,
तुम्हारे साथ रहते-रहते बड़ा हो जाएगा,
तब मैं अपने कुंए के पानी में,
बाल्टी समेत छलांग लगा जाउंगा।


पर ऎसा हुआ नहीं,
ये वाक्य मैं चोरी से तुम्हें दे नहीं पाया।
ये मेरी हथेली में ही गुदा रहा।


पर अभी कुछ समय पहले...
अभी ठीक-ठीक याद नहीं कब,
ये वाक्य अचानक कविता बन गया।
'प्रेम' - "मैं तुमसे 'प्रेम' करता हूँ",
और उसकी कविता।


भीतर कुंआ वैसा ही सूखा पड़ा था।
बाल्टी खरीदने की आशा...
अभी तक आशा ही थी।
और ये कविता!!!


इसे मैं कई दिनों से अपने साथ लिए घूम रहा हूँ।
अब सोचता हूँ,
कम से कम,
इसे ही तुम्हें सुना दूँ।


नहीं.. नहीं.. ज़बरदती नहीं,
चोरी से... भी नहीं,
बस तुम्हारी इच्छा से...।

'दरवाज़े...'



सबके सामने नंगा होने का डर इतना बड़ा है,
कि मैं घर हो गया हूँ।


दो खिडकी, और एक छोटे से दरवाज़े वाला।
जहाँ से, मुझे भी घिसटकर निकलना पड़ता है।


किसी के आने की गुंजाईश, उतनी ही है,
जितनी मेरे किसी के पास जाने की।


सबके अपने-अपने घर हैं।
अपने डर हैं।
इसलिए अपने किस्म के दरवाज़े हैं।

रविवार, 24 फ़रवरी 2008

'पर्यटक..'



गीली भरी हुई आँखो के पीछे,
कौन सी नदी किस तरह के उफान पर है।
मैंने उसका उदगम कभी नहीं जाना।


मैं दर्शक था...
एक तरह का पर्यटक जैसा,
जो उन गीली भरी हुई आँखो के सामने,
बस पड़ गया था।


मैंने जाने कितनी बाढ़ें देखी हैं।
सड़क पर,

गली में,
अपनों की,

शहरों की...


'पर बारिश खत्म होगी',
'नदी शाँत होगी'- के अंत ने,
मुझे हमेशा पर्यटक ही रहने दिया।


न मैं किसी गीली भरी हुई आँखो का उदगम जान पाया।
और न ही किसी नदी को उसके अंत तक...
उसकी खाड़ी तक ही कभी छोड़ पाया।


मैं बस पर्यटक ही बना रहा।

'शब्द द्रृश्य...'



एक वो जो 'छू गया होता भीतर तक'- सा शब्द,
तुमने कहा नहीं... दिखा दिया।

मैं वहीं था,
उस अनकहे शब्द से बने, द्रृश्य के सामने।
एकटक खड़ा,
अपनी अधूरी नींद के बारे में सोचता सा।

किसी शब्द के हिज्जे कर दिए सा,
वो द्रृश्य मैंने देखा था तब...
वो आज इतने सालों बाद, जुड़ा है पूरा।

सीधा शब्द कह देने का संस्कार तुममें नहीं था,
और द्रृश्य का अर्थ जानने की समझ मुझमें नहीं।

तुम बहुत आगे थी...
मैं वहीं खड़ा था...
तुम अब ओझल हो...
तो ये द्रृश्य बना है।

पहले मैं भाग रहा था।
अब मैं.. स्थिर, नज़रें झुकाए वहीं खड़ा हूँ।

'सूखी पंखुड़ियाँ...'



यहीं पे खड़ा था मैं।
पहाड़ के, इसी छोर पर...


जब अचानक मैंने तुम्हें सूंघा था।
तुम्हारे शरीर की गंध...


घबराकर इधर-उधर देखा।
तुम नहीं थी, तो कया था ये? कल्पना?
नहीं मैंने तुम्हें सूंघा था- सच!


फिर अपने कपड़ों पर निगाह गई,
कहीं मैंने तुम्हारा कुछ पहना तो नहीं हैं...
स्वेटर... रुमाल..या...


जेब में हाथ गया,
तो उस पहाड़ के छोर पर खड़े हुए...
मैं मुस्कुरा दिया।


कुछ फूल की सूखी पंखुड़ियाँ जेब में पड़ी थीं...
जाने कब से।


जब तक मैं उन्हें सूंघ पाता,
वो मेरी जासूस बन उड़ गई उस ओर...
जहाँ- पहली बार उन्होंने, मेरे साथ,
तुम्हारी सुगंध को बटोरा था।

'दिन की चालाकी...'



दिन में हम काफी चालाक होते हैं।
हम बड़ी चतुरता से दिन गुज़ार देते हैं।
असल में दिन बड़े भोले होते हैं,
उन्हें छला जा सकता है।


मगर शाम, शाम की नीरसता के आगे,
हमें हथियार डाल देने पड़ते हैं।


मैंने बहुत सोचा- शाम की नीरसता को कैसे छला जाए।
फिर समझ में आया,
शाम की अपनी समस्या है।


शाम असल में उस लड़की की तरह है,
जिसे दिन अपने घर से निकाल बाहर करता है,
और वो लड़की काफी देर तक रात की सांकल खटखटाती रहती है।
पर रात उसे अपने घर में जगह नहीं देती।
शायद रात अपने सपनों को नीरसता से दूर रखती है।
शाम बेचारी- न दिन की रह पाती है, न रात की।


ओर हम यहीं ग़लती कर बैठते हैं,
हम उसे अपना घर दे देते हैं,
और उस नीरसता के साथ खेलना शुरु कर देते हैं।
नीरसता का अपना सुख होता है,
जैसे- किसी को बहुत देर तक डूबते हुए देखने का सुख।


अब आप सूरज को ही ले लो...
भले ही हम दिन में सूरज की आँच से न जले हो,
पर शाम को हमें उसका डूबना-देखना,
सुख देने लगता है।
ये ख़तरनाक है...
मतलब आप उस लड़की से प्रेम कर बैठे।


तब!!!
तब रात अपने छोटे-छोटे सपनों को,
आपसे बचाती फिरती है।
और दिन...
दिन कभी भी आपको अपने घर से निकाल बाहर करता है।

'अकेलापन...'





'कोई बुलाएगा का इंतज़ार...'
'कहीं कोई बुला न ले'- के डर में जब बदलता है।
तब खालीपन दरवाज़ा खोलकर निकलता हैं।
और अकेलापन, कुर्सी पर आकर बैठ जाता है।



ऎसे समय में, मैं अक्सर ये सोचता हूँ,
कि मैं बहुत 'अलग' हूँ।



मैं अपनी आँखों से तवे पर रखी रोटी पलट सकता हूँ।



रोटी जल जाती है।
अकेलापन हँसता है...।



कहीं कोई भूखा होगा की कल्पना में,
रोटी फेंकता नहीं हूँ...
खाता भी नहीं हूँ...
दूध का जला, छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है।



अकेलेपन के साथ कुर्सी पर आकर बैठ जाता हूँ।
अकेलेपन से (धीरे से) कहता हूँ,
अब मैं 'सामान्य' हूँ।



अगली रोटी पे हाथ नहीं लगाता हूँ।
आँखो का काम चिमटा करता है।
रोटी पलट जाती है।



मैं!!!
मैं हँस देता हूँ।

मेरा घर...





मेरा घर दो जगह से टपकता है...



अरे!!! हँसिए मत, बात गंभीर है।
मैंने इसे ठीक कराया कई बार,
पर इसने इन्कार कर दिया हर बार।



अक्सर दूसरों की बात पर लोगों को हँसी आती है,



ठीक है-
'मेरा घर दो जगह से टपकता है,आप ही इसे ठीक करा दो'
मैं कहता हूँ।
पर फिर भी कोई यक़ीन नहीं करता।
क्योंकि ये घर हमेशा अकेले में मेरे साथ टपकता है।
पर किसी के आते ही शरमा जाता है जैसे,
टपकना बंद... क्यों?
अरे टपकना है तो हमेशा टपको,
यूँ बीच में बदं क्यों?



मेरा गुलाबी सा जवान घर,
अकेले में मेरे साथ टपकता है.... पता नहीं क्यों?



जब भी अकेले,
किसी मौसम को पकड़े घर में होता हूँ,
ये घर सूँघ लेता है जैसे....
पता नहीं कहाँ, कैसे...
कहीं बरसात हो रही होती है,
और ये घर यहाँ मेरे साथ टपकना शुरु कर देता है।



मेरा गुलाबी सा जवान घर,
अकेले में मेरे साथ टपकता है.... पता नहीं क्यों?

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008

'ठीक तुम्हारे पीछे'...



मैंने हर बार रख दिया है,
खुद को पूरा का पूरा खोलकर।
खुला-खुला स बिखरा हुआ, पड़ा रहता हूँ।

कभी तुम्हारे घुटनों पर...
कभी तुम्हारी पलकों पर...
तो कभी ठीक तुम्हारे पीछे।

बिखरने के बाद का, सिमटा हुआ सा मैं,
'था'- से लेकर -' हूँ ' तक...
पूरा का पूरा जी लेता हूँ, खुद को - फिर से।

मेरे जाने के बाद तुम शायद मुझे पढ़ लेती होगी,
कभी अपने घुटनों पर...
कभी अपनी पलकों पर...
पर जो कभी 'ठीक तुम्हारे पीछे'- बिखरा पड़ा था मैं, वो...
वो शायद पड़ा होगा अभी भी-
की आशा में,
मैं.. खुद को समेटे हुए,
फिर से आता हूँ तुम्हारे पास,
फिर,
बार-बार, और हर बार,
छोड़ जाता हूँ, थोड़ा-सा खुद को...
ठीक तुम्हारे पीछे।

बुढ़ापा...





हर आदमी कुछ समय के बाद नीचे रख दिया जाता है।
नीचे रख दिया जाना... उसे पता लग जाता है।
'अब आराम करो'- की बजाए...
'अब इंतज़ार करो'- उसे सुनाई देता है।

अलग कर दिया जाना उसे मंज़ूर है पर,
रास्ते से नीचे धकेल दिया जाना नहीं...
वो रास्ते पर वापिस आने के लिये लड़्ता है।
लड़ना..? किसके लिये..?
अपने ही रास्ते पर वापिस आने के लिए?
वो सोचता है...! थोड़ा रुक जाता है!!!
फिर लड़ना शुरु करता है,
पर अब लड़ना बदल चुका है।
'यहां किसी को आपकी ज़रुरत नहीं है'- के विरुद्ध।
'ज़रुरत हैं'- के लिए लड़ता है।
थक जाता है।

'सब ठीक है' - में -'कुछ ठीक नहीं है।'
दिखने लगता है।
'सब ठीक करने निकलता है'- पर,
चल नहीं पाता है इसलिए,
बोलना शुरु कर देता है।
बच्चा हो जाता है, खैलना शुरु कर देता है।

'यहाँ किसी को आपकी ज़रुरत नहीं है'- को भूलकर,
अपनी छोटी-छोटी ज़रुरतें ढूँढने लगता है।

धीरे-धीरे ज़रुरतें ख़त्म हो जाती है,
वो बहुत बूढ़ा हो जाता है।

तब..-'इंतज़ार करो'- की बजाए..
'सोया करो'- उसे सुनाई देता है।
और वो सो जाता है।

'प्रकॄति हमें अच्छी लगती है'...



'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- का एक पक्षी,
हमने अपने घर के पिंजरें में बंद कर रखा है।
और एक फूल ग़मले में उगा रखा है।


'हमें सुखी रहना चाहिए'- की हँसी,
लोगों को बाहर तक सुनाई देती है।
दुख की लड़ाई और रोना भी है,
पर वो सिर्फ इसलिए कि खुशी का पैमाना तय हो सके।


'बुज़ुर्गों की इज़्ज़त के माँ-बाप'- घर के कोनों में,
ज़िंदा बैठे रहते हैं।


'जानवरों से प्रेम'- की एक बिल्ली,
घर में यहाँ-वहाँ डरी हुई घूमती रहती है।


'इंसानों में आपसी प्रेम है'- के त्यौहार,
हर कुछ दिनों में चीखते-चिल्लाते नज़र आते हैं।
पर वो सिर्फ इसलिए कि 'इंसान ने ही इंनसान को मारा है'-
की आवाज़ें हमें कम सुनाई दे।


'हमको एक दूसरे की ज़रुरत है'- के खैल,
हम चोर-पुलिस, भाई-बहन, घर-घर, आफिस-आफिस
के रुप में, लगातार खेलते रहते हैं।


पर इस सारी हमारी खूबसूरत व्यवस्था में,
हमारे 'नाखून बढ्ते रहने का जानवर भी है।
जिसे हमने भीतर गुफा में,
धर्म और शांति की बोटियाँ खिला-खिलाकर छुपाए रखा है।


और फिर इन्हीं दिनों में से एक दिन....
'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- के पक्षी को,
'जानवरों से प्रेम की बिल्ली'- पंजा मारकर खा जाती है।
'हमारे नाखून बढते रहने का जानवर'-
गुफा से बाहर निकलकर बिल्ली को मार देता है।
'वहां बुज़ुर्गों की इज़्ज़त के माँ-बाप'-
चुप-चाप सब देखते रहते है,
और घर में 'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- का पिंजरा,
बरसों खाली पड़ा रहता है।

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

प्रेम...



तुम तक पहुँच पाता हूँ क्या मैं...
तुम्हें इतना हल्के छूने से।
तुम्हें छूते ही मुझे लगता है,
हमने इतने साल बेकार ही बातों में बिता दिए।
असहाय सी हमारी आँखें कितनी बेचारी हो जाती हैं,
जब वो शब्दश: ले लेती हैं, हमारे नंगे होने को।
चुप मैं... चुप तुम...
थक जाते हैं जब एक दूसरे को पढकर,
तब आँखें बंद कर लेते हैं।
फिर सिर्फ स्पर्श रह जाते हैं- जो व्यवहारिक हैं,
और हम एक दूसरे की प्रशंसा में लग जाते हैं।
तुम्हारा हल्के हँसना, मुस्कुराना,
मुझे मेरे स्पर्श की प्रशंसा का- 'धन्यवाद कहना',
जैसा लगता है।
फिर हम एक-एक रंग चुनते हैं,
और एक दूसरे को रंगना शुरु करते हैं,
बुरी तरह, पूरी तरह...
तुम कभी पूरी लाल हो चुकी होती हो,
तो कभी मैं पूरा नीला।
इस बहुत बडे संसार में हम एक दूसरे को इस वक्त,
"थोडा ज्यादा जानते हैं"- का सुख,
कुछ लाल रंग में तुम्हारे ऊपर,
और कुछ नीले रंग में मेरे ऊपर,
हमेशा बना रहेगा।

ब्लैक-बोर्ड...



बड़े से ब्लैक-बोर्ड पर,
मेथमेटिक्स का एक इक्वेशन लिखा हुआ है...
जिसे हम नीचे साल्व कर रहे होते हैं।
उपर डस्टर हमारी पिछली जिंदगी को मिटा रहा होता है।
कुछ अंक, कुछ धुंधले शब्द...
जिसे डस्टर ठीक से मिटा नहीं पाता,
उनका रिफ्रेंस ले-लेकर हम,
जीवन की इक्वेशन को हल कर रहे होते हैं.....लगातार।

रात..



सभी अपने-अपने तरीके से रात के साथ सोते हैं।
हर आदमी का रात के अंधेरे के साथ अपना संबंध होता है।
अग़र ये संबंध अच्छा है,
तो आपको नींद आ जाती है।
और अगर ये संबंध खराब है,
तो आपके जीवन के छोटे-छोटे अंधेरे,
रात के अंधेरे नें घुस आते हैं,
और आपको सोने नहीं देते।

नींद...



मैंने सुनहरा सो़चा था,
वो काला निकला।


तभी नींद का एक झोंका आया,
मैंने उसे फिर सुनहरा कर दिया।


अब... सुबह होने का भय लेकर नींद में बैठा हूँ।
या तो उसे उठकर काला पाऊँ,
या हमेशा के लिए उसे सुनहरा ही रहने दूँ...
और कभी न उठूँ।

टीस..



सब कुछ हो रहा है,
हर शाम एक टीस का उठना,
सब कुछ होने मैं शामिल रहता है।


किस्म-किस्म की कहानियाँ, आँखो के सामने चलती रहती है।
कुछ पड़ता हूँ ... कुछ गढ़ता रहता हूँ।


दिन में आसमान दखता हूँ।

जो तारा रात में दखते हुए छोडा था...वो दिन में ढूँढता हूँ।
सपने दिन के तारों जैसे है।
जो दिखते नही हैं... ढूढने पड़ते हैं।


रात में सपने नहीं आते....
सपनों की शक्ल का एक आदमी आता है।
ये बचा हुआ आदमी है।
जो दिन के 'सब कुछ होने में'- सरकता रहता है,
और शाम की टीस के साथ अंदर आता है।
ये दिन की कहानी में शामिल नहीं होता....
इसकी अपनी अलग कहानी हैं...
जिसे जीना बाक़ी है...।

रेखाएं..




आदतन...
अपना भविष्य मैं अपने हाथों की रेखाओं में ट्टोलता हूँ।
'कहीं कुछ छुपा हुआ है'- सा चमत्कार,
एक छोटे बादल जैसा हमेशा मेरे साथ चलता है।
तेज़ धूप में इस बादल से हमें कोई सहायता नहीं मिलती है।
वो बस हथेली में एक तिल की तरह , पड़ा रहता है।
अब तिल का होना शुभ है,
और इससे लाभ होगा..
इसलिए इस छोटे से बादल को संभालकर रखता हूँ।
फिर इच्छा होती है, कि वहाँ चला जाऊँ...
जहाँ बारिश पैदा होती है,
बादल बट रहे होते हैं।
पर शायद देर हो चुकी है,
अब मेरी आस्था का अंगूठा इतना कड़क हो चुका है,
कि वो किसी के विश्वास में झुकता ही नहीं है।
फिर मैं उन रेखाओं के बारे में भी सोचता हूँ...
जो बीच में ही कहीं ग़ायब हो गई थी।
'ये एक दिन मेरी नियति जीयेगा'- की आशा में...
जो बहुत समय तक मेरी हथेली में पड़ी रहीं।
क्या थी उनकी नियती?
...कौन सी दुनिया इंतज़ार कर रही है, इन दरवाज़ों के उस तरफ़,

जिन्हें मैं कभी खोल नहीं पाया...।

तभी मैंने एक अजीब सी चीज़ देखी,

मैंने देखा मेरे माथे पर कुछ रेखाएँ बढ गयी हैं..अचानक...

अब ये रेखाएँ क्या हैं...क्या इनकी भी कोई नियति है, अपने दरवाज़े हैं?

...नहीं...इनका कुछ भी नहीं है,

बहुत बाद में पता चला इनका कुछ भी नहीं है...।


ये 'मौन' रेखाएँ हैं

मौन उन रेखाओं का जो मेरे हाथों में उभरी थीं,

पर मैं उनके दरवाज़े कभी खोल ही नहीं पाया।

सच ...मैने देखा है- जब भी कोई रेखा मेरे हाथों से ग़ायब हुई है,

मैने उसका मौन, अपने माथे पर महसूस किया है।
पता नहीं,
पर मुझे लगता है, यही मौन हैं, जो हमें बूढा बनाते हैं।
जिस दिन माथे पर जगह ख़त्म हो जाएगी ..
ये मौन चेहरे पर उतर आएगा,
और हम बूढे हो जाएंगें...।

पानी...




भीतर पानी साफ था...
साफ ठंडा पानी, कूँए की तरह,
जब हम पैदा हुए थे।
जैसे-जैसे हम बड़े होते गए,
हमने अपने कूँए में खिलौने फैंके,शब्द फैंके,
किताबें, लोगों की अपेक्षाओं जैसे भारी पत्थर....
और इंसान जैसा जीने के ढेंरो खांचे।
और अब जब हमारे कूएँ में पानी की जगह नहीं है,
तो हम कहते हैं....
ये तो सामान्य बात है।

पतंग..



छोटे-छोटे न मालूम कितने सारे संबंधो के सिरे,
गिनता बैठा था।
जो कुछ छूट गए हैं,
ओर जो कुछ छूटने को हैं।


जो संबंध छूट गए हैं, वो कहानी बन गए हैं,
जिन्हें कहते-सुनते, हमारा वक़्त गुज़र जाता है।


पर जो संबंध छूटने को हैं,
वो अभी, इस वक्त वैसे है जैसे....
आपकी पतंग कटने के बाद,
जब कोई बच्चा आपके मांझे को कहीं ओर पकड़ लेता है।
वो उस छोर पर खड़ा होकर इंतज़ार करता है।
संबंध को न तोड़ता है, न छोड़ता ही है।
आप यहाँ पतंग कटने के दुख को भूलकर....
अपने मांझे को बचाने में लग जाते हैं।


दोनों के संबंध का तनाव, मांझे पर देखा जा सकता है।


पतंगबाज़ो के अनुसार....
जो संबंध को पहले खींचके तोड़ेगा,
उसके पास सबसे कम मांझा आएगा।


धैर्य- परिक्षा धैर्य की होती है।
क्योंकि बात कहानी में नायक होने की है।
ग़र उसने संबंध पहले तोड़ा,
तो कहानी आपकी है... ओर नायक भी आप ही हैं।
पर अग़र आपका धैर्य टूट गया...
तो पूरी ज़िन्दगी कहानी में आपकी भूमिका,
खलनायक की ही होगी।

माँ





धूप चेहरा जला रही है,
परछाई, जूता खा रही है,
शरीर पानी फेंक रहा है,
एक दरख़्त पास आ रहा है।



उसके आंचल में मैं पला हूँ,
उसके वात्सल्य की साँस पीकर,
आज मैं भी हरा हूँ।
आप विश्वास नहीं करेंगें,
पर इस जंगल में एक पेड़ ने मुझे सींचा है।
मैं इसे माँ कहता हूँ।



जब रात शोर खा चुकी होती है,
जब हमारी घबराहट, नींद को रात से छोटा कर देती है,
जब हमारी कायरता, सपनों में दखल देने लगती है।
तब माथे पर उसकी उंग्लियाँ हरकत करती हैं
ओर मैं सो जाता हूँ...।

आप देख सकते हैं....

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