शनिवार, 20 दिसंबर 2008

अक़्स...


वह पानी...
उसमें देखा गया अपना ही अक़्स...
पुराने किसी एल्बम के पीले पड़ गए चित्र जैसा...।
रुका-थमा... हतप्रभ सा।
मेरे जानने के बाहर का वह....
मेरी विकृतियों से दूर कहीं... छुपा बैठा है नदी के नीचे कहीं।
दबोच लूँ उसे... कहीं।
नहा लूँ उसमें कभी।
नहीं, छूटा नहीं पड़ा है वह नदी के नीचे कहीं।
वह यहाँ भी है... आस-पास ही कहीं...।
जीवन के गुणा-भाग में,
वह राह चलते कभी-कभी छलक जाता है...।
खाली घर में जब भी कभी दाखिल होता हूँ....
वह बत्ति जलाने के ठीक पहले...
दिख जाता है कभी....।
मूक, शांत सा, हतप्रभ...।
यह मेरा सारा लिखा....
उस पीले पड़ गए अक़्स के सामने, बोझ सा लगता है।
यूँ अपनी बचकानी चालाकी में मैं लोगों से कहता फिरता हूँ कि...
मेरा सारा लिखा,
उस हतप्रभ आँखों के पूछे गए ढ़ेरों सवालों के जवाब सा है।
इस झूठ से हर बार हंसी आती है...
और फिर उस हंसी से... ग्लानी...।
उस अक़्स में कोई सवाल नहीं है....
शिक़ायत भी नहीं...
एक अविश्वसनीय, निश्छल समर्पण सा है...।
जिसे देखकर...
मैं मूक हूँ...
शांत हूँ...
और हतप्रभ...।

रविवार, 14 दिसंबर 2008

"मैं हिन्दु देश का मुस्लमान.."


मुझे अपनी “सीमा” में रहना है।
मैं अंतरिक्ष समझता हूँ, दुनियाँ जानता हूँ।
साँस लेने, खाने-पीने-सोने के भीतर-बाहर, मेरा एक देश है....
जिसे मैं पहचानता हूँ।
मैं एक हिन्दु देश का मुस्लमान हूँ।
मुझे अपनी “हदें” पता है, जैसे हर एक आदमी की अपनी ’हद’ है।
पर अभी कुछ ऎसी तिरछी-आड़ी लक़ीरें दिखती हैं।
जिसमें मेरी “हद”, वह “हद” नहीं है जो सबकी है।
यहाँ तक कि... मेरी “हद” अब “हद” भी नहीं रह गई है,
वह “सीमा” हो गई है।
अब मुझे अपनी “हद” में नहीं...
मुझे अपनी “सीमा” में रहना है।
अब मैं....
मैं अंतरिक्ष समझता हूँ, दुनियाँ जानता हूँ।
साँस लेने, खाने-पीने-सोने के भीतर-बाहर, मेरा एक देश है....
जिसे अब मैं नहीं पहचानता हूँ।

आप देख सकते हैं....

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