पर जंग कभी हुई नहीं...
चाकू, भाले, तलवारों में धार तेज़ थी।
रणनीतियों की किताबें हम,
घोंट-घोंट कर पी चुके थे,
बदले की भावना से सब ओत-प्रोत थे।
पर जंग कभी हुई नहीं।
जंग शुरु होने के पहले की तैयारियाँ...
हमने तब से शुरु कर दी थी, जब से
'जंग' शब्द का अर्थ,
हमारी समझ में आया था।
जंग कभी भी हो सकती है- का माहौल हमने,
किस्से कहानियों से लेकर यथार्थ तक,
हर जगह बना रखा था।
पर जंग कभी हुई नहीं।
जंग के लिए एक खुला मैदान चाहिए,
खुले मैदान से विचार हमने हर जगह जमाए।
जंगल मैदान किए- शेर,चीते, हाथी सभी मैदान हुए।
खुले मैदान के लिए हम खुद.
ऊँची-ऊँची बिल्डिंगो के पिजरों में कैद हुए,
पर मैदान में रात भर कुत्ते रोते रहे....
और जंग कभी हुई नहीं...
दुश्मन अगल-बगल ही कहीं छुपा था।
उसके अईय्यार्, भीतर-बाहर,
हर जगह मौजूद थे।
यहां हमारी सेना भी तैयार थी...
अय्यारी के मुखौटे, हम भी बदलना सीख चुके थे।
पर दुश्मन छुपा ही रहा...
और जंग कभी हुई नहीं...
दुश्मन चालाक है- दुश्मन से डरो,
एसा करो-एसा मत करो,
जैसे वाक्य सभी जगह-
इश्तहारों, दीवारों पर चिपके थे।
यूँ दुश्मन को हमने कभी देखा नहीं..
पर उसके कल्पना चित्र,
पूरे बाज़ार में बिक रहे थे।
जब हम जवान थे-या-जब भी हम जवान हुए,
वक़्त-बे-वक़्त हमने, हम सभी ने...
अपनी-अपनी ज़ुबान में,
अपने दुश्मन को एक बार तो ललकारा है।
पर दुश्मन कभी सामने आया ही नहीं...
और जंग कभी हुई नहीं...
डर एक रस्सी है,
जिसपर हम सब लटके हैं,
गर ज़मीन पर चलेंगें तो दुश्मन कभी भी धर-दबोचेगा।
इस डर ने ही हमसे ये रस्सी बुनवाई है...
अब हम लटके रहना चाहते हैं,
'अंत तक लटके रहने की चाह में...'
इसी रस्सी से हम खेलते हैं...
रस्सी पर चलते हैं...
रस्सी बिछाते हैं...
रस्सी ओढ़ते हैं...
रस्सी का एक देवता भी हमने बना रखा है।
उसे बचाने के लिए.. हम सब लड़ मरेंगें।
पर असल में...
रस्सी कभी थी ही नहीं...
और जंग कभी हुई नहीं।
रस्सी कभी थी ही नहीं...
और जंग कभी हुई नहीं।