रविवार, 16 मार्च 2008

'पर जंग कभी हुई नहीं...'



पर जंग कभी हुई नहीं...


चाकू, भाले, तलवारों में धार तेज़ थी।
रणनीतियों की किताबें हम,
घोंट-घोंट कर पी चुके थे,
बदले की भावना से सब ओत-प्रोत थे।
पर जंग कभी हुई नहीं।


जंग शुरु होने के पहले की तैयारियाँ...
हमने तब से शुरु कर दी थी, जब से
'जंग' शब्द का अर्थ,
हमारी समझ में आया था।
जंग कभी भी हो सकती है- का माहौल हमने,
किस्से कहानियों से लेकर यथार्थ तक,
हर जगह बना रखा था।
पर जंग कभी हुई नहीं।


जंग के लिए एक खुला मैदान चाहिए,
खुले मैदान से विचार हमने हर जगह जमाए।
जंगल मैदान किए- शेर,चीते, हाथी सभी मैदान हुए।
खुले मैदान के लिए हम खुद.
ऊँची-ऊँची बिल्डिंगो के पिजरों में कैद हुए,
पर मैदान में रात भर कुत्ते रोते रहे....
और जंग कभी हुई नहीं...


दुश्मन अगल-बगल ही कहीं छुपा था।
उसके अईय्यार्, भीतर-बाहर,
हर जगह मौजूद थे।
यहां हमारी सेना भी तैयार थी...
अय्यारी के मुखौटे, हम भी बदलना सीख चुके थे।
पर दुश्मन छुपा ही रहा...
और जंग कभी हुई नहीं...


दुश्मन चालाक है- दुश्मन से डरो,
एसा करो-एसा मत करो,
जैसे वाक्य सभी जगह-
इश्तहारों, दीवारों पर चिपके थे।
यूँ दुश्मन को हमने कभी देखा नहीं..
पर उसके कल्पना चित्र,
पूरे बाज़ार में बिक रहे थे।
जब हम जवान थे-या-जब भी हम जवान हुए,
वक़्त-बे-वक़्त हमने, हम सभी ने...
अपनी-अपनी ज़ुबान में,
अपने दुश्मन को एक बार तो ललकारा है।
पर दुश्मन कभी सामने आया ही नहीं...
और जंग कभी हुई नहीं...


डर एक रस्सी है,
जिसपर हम सब लटके हैं,
गर ज़मीन पर चलेंगें तो दुश्मन कभी भी धर-दबोचेगा।
इस डर ने ही हमसे ये रस्सी बुनवाई है...
अब हम लटके रहना चाहते हैं,
'अंत तक लटके रहने की चाह में...'
इसी रस्सी से हम खेलते हैं...
रस्सी पर चलते हैं...
रस्सी बिछाते हैं...
रस्सी ओढ़ते हैं...
रस्सी का एक देवता भी हमने बना रखा है।
उसे बचाने के लिए.. हम सब लड़ मरेंगें।
पर असल में...
रस्सी कभी थी ही नहीं...
और जंग कभी हुई नहीं।

बुधवार, 12 मार्च 2008

छूटी हुई जगह...


दो बातों के बीच की चुप्पी,
और...
हम दोनों के बी़च की ये छूटी पड़ी हुई जगह।
उतना ही ईश्वर...
अपने बीच पाले बैठी हैं,
जितना...
हमारी एक दूसरे से...
कभी न कही गई,
असहनीय बातें।

मंगलवार, 11 मार्च 2008

दहलीज़ पार...



तुम्हारी दहलीज़ पर खड़े रहकर,
कितनी ही बार मैंने कसम खाई है कि-
'नहीं..मैं भीतर नहीं जाऊगां।'
'मैं दरवाज़ा भी नहीं खटखटाऊगां...ना।'

और कुछ ही देर में मैं तुम्हारे साथ,
तुम्हारे बगल में पाया जाता हूँ...
और भीतर पड़े हुए,
दहलीज़ पर खाई हुई अपनी कसमों को याद करता हूँ।

उन बचकाने कारणों के बारे में सोचता हूँ,
जिन्होने मुझे फिर एक बार...
दहलीज़ के इस तरफ...
तुम्हारे बगल में लाकर बिठा दिया।

सच मुझे हँसी आती है,
कैसे हैं ये कारण-
- यहाँ से गुज़र रहा था सोचा तुमसे मिलता चलूं...
- कल रात तुम्हारा सपना देखा तो मुझे लगा कि....
- आज मैं बहुत खुश हूँ इसलिए...
- हममम...!!!
- आज दिन बहुत उदास है.. तुम्हें नहीं लगा?...
- तुम्हारी माँ की बड़ी याद आ रही थी तो...
- सरप्राईज़... !!!
- नई कविता लिखी है, सोचा तुम्हें सुना दूं तो...
- एक चाय पीने की इच्छा थी इसलिए...
और...
- तुम्हें बस एक बार देखना चाहता था।

'तुम्हें बस एक बार देखना चाहता था'-
वाली बातों ने हमेशा मुझसे..
तुम्हारा ये दरवाज़ा खुलवाया है।

इन कसमों- कारणों के बारे में,
मैंने तुम्हें कभी नहीं बताया...
और शायद कभी बतऊंगा भी नहीं।

बस तुम्हारे बगल में बैठे हुए...
तुम्हारी बातें सुनते- कहते हुए...
मुझे उन कसमों और कारणों के बारे में सोचना,
अच्छा लगता है।

रविवार, 9 मार्च 2008

'बल...'



बल...
बल क्या शब्द है?
कैसे इसका अनुभव हो !!!


बल नहीं समझा, तो क्या मैं निर्बल हूँ !!
निर्बल.. रक्षा जानता है।


अरे हाँ! .. रक्षा,
रक्षा करते रहने का एक संस्कार है।
'किससे'.. शब्द उसमें नगण्य है।


रक्षा समझ में आता है.. पर बल क्या है?
मुझमें बल है कि मैं...
इतना वज़न एक बार में उठा सकता हूँ!!!


नहीं, बल शब्द का अर्थ इससे पूरा नहीं होता।
कुछ और जो हमें बल देता है।
और जब भी बल होता है...
जैसे- कुछ कर देने का ...
कह देने का...
रह या सह लेने का...
तब भी, उससे भी कहीं अधिक बल...
छूटा रह जाता है,
.....'पाया जा सकता है'-
की आशा लिए।

इसका मतलब...
'बल एक शब्द है...,
जिसे पूरा अनुभव करने का बल,
हमेंशा सामने छूटा पड़ा रहेगा,
उसे उठा लेने का बल हमारे पास
कभी नहीं होगा।'

इसमें 'उठा लेना'..
शब्द नगण्य है।

'सही है...।'



सभी कह कह कर थक गए...
मर गए...
चले गए...
वहीं से हमने फिर कहना शुरु किया,
वैसा का वैसा..
रटा हुआ सा..
और सबने कहा... सही है।


लोगो के काम किए हुए सा चित्र..
हमने उन्हीं के सामने बना दिया,
कुछ काम किया है- का भ्रंम,
थोड़ा खुद को दिया...
थोड़ा लोगो में बाट दिया।
और सबने कहा... सही है।


हम अपना जीवन..
यूँ ही नहीं काट रहे हैं- के जवाब देते-देते,
थके हुए से हम...
वहीं नीरस चढ़े हुए फिर से चढ़ने लगे।
शिखर पर जगह बनाकर...
थोड़ा इसको हिलाकर..
थोड़ा उसको खिसकाकर...
हम बैठ गए..
फिर लेट गए..
और फिर सो गए।
सबने कहा... सही है।

सबसे पहले हमने क्या खाना सीख़ा,
अंड़ा या मुर्गी।
इस प्रश्न से जब हम बोर हुए तो...
इन्सान के अलावा जो भी चीज़ धरती पर हिली,
हमने उसे खुलेआम खाना सीख लिया।
एक बार मेरे खाने में एक बच्चे की उगंली मिली,
मैं डर गया...
इससे पहले कि लोगों को पता लगे कि...
हम इन्सान भी खाने लगे है..
मैं तुरंत उगंली गटक गया।
एक डकार ली और कहा-
'यार मटन कड़्वा था.. यार!!!
आदमी का था क्या?'
कुछ लोग हंसे...
और कुछ ने कहा... सही है।

'हम सब किसी मकसद से पैदा हुए है'- से विचार,
हम सबने...
दूध में घोल-घोल कर,
बचपन से पिए हैं।
फिर वो कहानियाँ भी हमने पढ़ी हैं...
रटी हैं...
जिन्होने हमें तो बोर किया,
पर उन्होने, हज़ारों मक़्सदो सी दीवारें,
हमारे चारों तरफ खड़ी कर दी।
अब मक़्सद नाम का मेरा घर है...
दूध पचता नहीं है...
हर सुबह एक अंगड़ाई लेकर कहता हूँ-
'कुछ करना है यार...'
और सब कहते हैं... सही है।

बहुत अमीर आदमी को..
बहुत अमीर आदमी बनाने के लिए...
हमने बहुत पढ़ाई की।
बहुत अमीर आदमी कभी,
बहुत अमीर आदमी नहीं हुआ।
हम बहुत पढ़ाई करने के बाद भी,
उसे बहुत अमीर आदमी नहीं बना पाए।
फिर हमने अपने बच्चे पैदा किए।
ढ़ेरों बच्चो को...
ढे़रों किताबों से लादकर..
उसी अमीर आदमी के बनवाएं स्कूलो में..
हमने उन्हें ढूस दिया।
स्कूल में बच्चों से पूछा-
'किसके बेटे हो।'
अमीर आदमी ने सिखाया-
'भगवान के...'
और हम सबने कहा...सही है।
सही है... सही है।

'शुरुआत..'



'अंत में सबकुछ अच्छा होगा'- का सुख,
शुरुआत कराता है।


शुरुआत अंत का सपना लेकर साथ निकलती है।
वो अंत में अंत से मिलेगी...
और फिर सब सब अच्छा होगा।


शुरुआत पैदा होने की सारी तकलीफ़े झेलती है,
वो अपने बालों को उलझाती हुई,
हर नए मोड़ पर अंत को याद करती है।
वो हंसती है, रोती है,
चिल्लाती है... कभी-कभी रुक जाती है।
कहां से वो चली थी...
और कहां तक उसे जाना है।


जैसे-जैसे अंत पास आता है,
शुरुआत अपने नए-नए रुप बदलती है,
उसकी आँखे छलक जाती है।
वो अपने बालों को सुलझाने लगती है,
वो गाती है.. मुस्कुराती है।
अंत से कहना चाहती है-
'देखो मैं आ गई'


धीमे कदमों से चलता हुआ अंत होता है।
और फिर...
सबकुछ अच्छा होने लगता है।
पर अंत...
अंत में शुरुआत को भूल जाता है।

'जूता...'




'जूता जब काटता है...

तो जिन्दगी काटना मुश्किल हो जाता है।

और जूता काटना जब बंद कर देता है...

तो वक्त काटना मुश्किल हो जाता है।'

'जुगाली...'



थोड़ी देर तक साथ रहेंगें...
पर काफ़ी देर तक साथ रह्ते हैं।


घड़ी की सुई और दिन का ढलना...
पकड़ के बाहर है।
पर अभी जो पकड़े हुए हूँ.. तुम्हारा हाथ,
उसे मत छुड़ाना।


बस अभी चले जायेंगें-
पर देर तक बैठे रहते हैं,
और मैं सुनता हूँ..
तुम्हारा थोड़ा बोलना... देर तक।


पर समय है कि भाग रहा है,
मैं इस समय को,
गाय की तरह बहुत सारा निगल जाना चाहता हूँ।
मुझे पता है तुम बस अभी चली जाओगी,
पर मैं बैठा रहूँगा देर तक...
यहीं इसी जगह पर,
और गाय की तरह जुगाली करता रहूँगा,
उन सभी बातों की जो तुम,
अभी-अभी कह नहीं पाई थी...देर तक।

'बाज़ार...'



कब हमें हमारा जंगल मिलेगा?,
कब तक हम यूँ ही उगते फिरेंगें?


रोज़ दिन बीतने की गति में....मैं..
बार-बार बोया गया बीज की तरह।
अब मैं हर कहीं उगता फिरता हूँ...
बार-बार पैदा होने की गति में।


भीतर बहुत बार पैदा हुआ मैं,
इस भीड़ में.. अपनी बहुत सी भीड़ लिए,
एक बार फिर जनने की तैयारी करता हूँ ।
कहीं ज़मीन उपजाऊ है, तो कहीं बंजर है।
पर इस लगातार चल रहे संभोग में...
अब ज़मीन भी माने नहीं रखती,
संभोग इतना आँखो के सामने है,
कि भीतर किसका जंगल है, ये जानना मुश्किल है।


इस सब में-
'मैं कौन था?' से 'मैं कौन हूँ?' तक के सारे विचार,
इस जंगल में लुप्त होते जानवर हैं।


अब जो भीतर बचा हुआ जानवर कभी दहाड़ता है,
वो दहाड़..
ऊपर आते-आते एक ऎसे शब्द का रुप ले लेती है।
कि हम अंत में किसी न किसी का प्रचार करते पाये जाते हैं।


इस पूरे बाज़ार में,
ये प्रश्न कितना हास्यास्पद हो जाता है-
कि कब हमें हमारा जंगल मिलेगा?,
और कब तक हम यूँ ही उगते फिरेंगें?

शनिवार, 8 मार्च 2008

गलियां.. पगडंडियां



बहुत समय तक गलियों और पगडंडियों में जी लेने के बाद,
सीधी चौड़ी सड़क पर चलना...
अपनी ही गलियों और पगडंडियों से बेइमानी करना लगता है।
कुछ कहीं रोक लेता है...
पीछे खींच लेता है।
एक धना पेड़...
नदी का किनारा...
कुछ किताबें...
छोटी-छोटी बहुत सी बातें कहने की इच्छा से...
गुदे हुए पन्ने...
सभी सामने तैरने लगते हैं।
कभी इच्छा होती है कि सब भूल जाऊँ,
चल दूँ इस डामर की सड़क पर...
कुछ कदम तो रखना है, फिर ये भीड़..
खुद-ब-खुद बहा ले जाएगी।
और मैं गोल-गोल सबके साथ घूमने लगूँगा।

पर आगे कहीं,
सड़क के किनारे,
अगर एक पगडंडी पड़ी मिल गई तो!!!
तो क्या करुंगा...
शायद मुँह छिपा लूंगा,
या कह दूंगा कि- 'जल्दी आता हूँ'..
और भीतर प्रार्थना करुंगा कि कहीं ये झूठ पकड़ा न जाए।
पर अगर पगडंडी ने मुझसे पूछ लिया कि-
'कैसा लग रहा है... वहां?'
तो क्या जवाब दूंगा।
रो दूंगा शायद... अपनी बेइमानी पर,
या कह दूंगा-
'अजीब सवाल है!'
और फिर मुँह फेरकर गोल-गोल घूमने लगूंगा,
ये सोचते हुए कि-
'सच में.. कैसा लग रहा है... यहाँ?'

बहुत समय तक गलियों और पगडंडियों में जी लेने के बाद,
सीधी चौड़ी सड़क पर चलना...
अपनी ही गलियों और पगडंडियों से बेइमानी करना लगता है।
पता नहीं...
पर जब भी मैं इस डामर की सड़क को देखता हूँ,
तो मुझे मेले में देखा हुआ अंधे कुंए का खैल याद आता है।
मुझे उस खैल दिखाने वाले पर बड़ी दया आती थी।
सो एक बार मैं...
खैल के बाद उससे मिला...
और चिल्लाने लगा...
ये क्या खैल है?
एक ही जगह गोल-गोल धूमने का?
क्या मिलता है तुम्हें?
क्यों करते हो ऎसा?
वगैरह-वगैरह!
उसने मेरा हाथ पकड़ा और खीचकर..
कूंए के भीतर ले गया और कहा-
'ऊपर देखो'
मैंने देखा कुंए के चारों तरफ...
मुझे सिर्फ लोगों के सिर दिखाई दे रहे थे,
जो उसे देखते ही दोनों हाथ उठाकर चिल्लाने लगे।
उसने कहा-
'ये इतने सारे लोगों की अपेक्षा है कि मैं फिर,
बार-बार,
लगातार गोल-गोल घूमता रहूँ।'

ये बात मुझे तब समझ में नहीं आई थी,
पर अब लगता है.. वो सही था।
हमारा चलना- 'अपेक्षा के गोल चक्करों से होता हुआ,
अपेक्षित के गोल चक्कर बनाने तक है।'

पर इसमें एक बात..
जो लगातार मुझे कहीं-न-कहीं रोक लेती है कि-

बहुत समय तक गलियों और पगडंडियों में जी लेने के बाद,
सीधी चौड़ी सड़क पर चलना...
अपनी ही गलियों और पगडंडियों से बेइमानी करना लगता है।

'दंगों के हम...'



एक दिन कोई बोलेगा- 'उठो',
और हम सब उठ जायेंगें।


जो जी रहे थे ...
वो सपना था।
हम डर जायेंगें...
ढूढेंगे उसे जिसने उठाया था।
पर वो कहीं नहीं होगा।


हमारे जिये की दुनियावी धूल झाड़कर,
बस एक बच्चों का सा सच, सामने खड़ा होगा।


जो अब तक पता नहीं किया वो सबको..
खुद-ब-खुद पता लग जाएगा।
जिसके लिए हम लड़ते रहे... वो असल में था ही नहीं।


हम घबरा जाएंगें...
क्योंकि अब सामना करना होगा...
सबको सबकी आँखो का।
फिर हम सब रोने की कोशिश करेंगें...
पर रो नहीं पाएंगें...।
हँस तो सकते ही नहीं..
क्योंकि..
जैसा जिया है... हमने ही जिया है।
जो किया है... हमने ही किया है।


बस एक दूसरे के लिए बहुत सारे प्रश्न होंगें हमारे पास..
पर पूछ नहीं पाएगें।
क्योंकि जवाब सबको पता होगें...
और वो इतने शर्मनाक होंगें...
कि हम छोटे होते जाएंगें।
इतने छोटे कि एक दूसरे को देख भी नहीं पाएंगें..।


और फिर हम सब भागना शुरु करेंगें... बदहवास से...
उस आदमी की तलाश में...
जो बोलेगा...-'सो जाओ'
और हम सब फिर से जीने लगेंगें।

मंगलवार, 4 मार्च 2008

'थामूं तुम्हारा हाथ'



'थामूं तुम्हारा हाथ'-
इस वाक्य के पीछे हमारे,
साथ जिए की पता नहीं कितनी कहानियाँ...
तुम मेरी आँखो में ढूँढती हो..
जब मैं तुमसे कहता हूँ...
'थामूं तुम्हारा हाथ'


पता नहीं क्यों?
पर तुम यूं ही अपना हाथ आगे नहीं बढाती हो..
तुम मेरी आँखो में एक कहानी टटोलना शुरु करती हो...
जिसका अंत 'थामूं तुम्हारा हाथ'- को बनाकर तुम..
अपना हाथ मेरे हाथ में दे सको।


बस यहीं... ऎसी ही जगह...
यूं ही कहे गए मेरे वाक्य,
मुझे बोझ लगने लगते हैं।


मैं चाहता हूँ सच कहना...
कि मेरे-'थामूं तुम्हारा हाथ' के पीछे... सिर्फ खालीपन है..
एक मंदिर की तरह...
उस मंदिर की तरह जिसका कोई देवता न हो।


खैर..
'थामूं तुम्हारा हाथ'- कहते ही सब कुछ,
थोड़ी देर के लिए रुक गया।
तुम्हारा हाथ...
मेरा सच...
हम दोंनों...


तुम्हारी आँखे, एक बच्चे जैसी, कहानी की ज़िद करने लगी...
और मेरा बोझ चेहरे से शरीर में उतरने लगा।


पर मेरी आँखे इस बोझ में भी हल्की थी,
क्योंकि वो इस वक्त खून कर रही थी..
उस मासूमियत का...
जिससे मैंने यूं ही तुम्हें कह दिया था..-
'थामूं तुम्हारा हाथ'


'तुम्हारी आँखे कहीं मेरी आँखो से हट न जाए'- के डर से..
इस बीच..
मैं कई देवता तुम्हारे सामने रखता हूँ,
जिसे तुम्हारी आँखे उस मंदिर में देखना चाह रही थी।


अचानक...
सब रुका हुआ थोड़ा हरकत करता है...
तुम्हारा हाथ ढीला पड़ने लगता है...
आँखे नीचे झुकने लगती हैं...


जल्दी में...
मैं एक देवता को चुनकर...
तुरंत उस मंदिर में स्थापित कर देता हूँ।
और तुम एक सांत्वना भरी मुस्कान देके..
मुड़ जाती हो...।

आप देख सकते हैं....

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