रविवार, 9 मार्च 2008

'जुगाली...'



थोड़ी देर तक साथ रहेंगें...
पर काफ़ी देर तक साथ रह्ते हैं।


घड़ी की सुई और दिन का ढलना...
पकड़ के बाहर है।
पर अभी जो पकड़े हुए हूँ.. तुम्हारा हाथ,
उसे मत छुड़ाना।


बस अभी चले जायेंगें-
पर देर तक बैठे रहते हैं,
और मैं सुनता हूँ..
तुम्हारा थोड़ा बोलना... देर तक।


पर समय है कि भाग रहा है,
मैं इस समय को,
गाय की तरह बहुत सारा निगल जाना चाहता हूँ।
मुझे पता है तुम बस अभी चली जाओगी,
पर मैं बैठा रहूँगा देर तक...
यहीं इसी जगह पर,
और गाय की तरह जुगाली करता रहूँगा,
उन सभी बातों की जो तुम,
अभी-अभी कह नहीं पाई थी...देर तक।

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

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Reetesh Gupta ने कहा…

अगर मैं तुम्हें सही पहचाना हूँ तुम होशंगाबाद शहर में जवान हुये मानव कौल हो...और मैं हूँ रीतेश गुप्ता...ब्रह्मज्ञान पुस्तकालय वाला...तुम्हारी मनोज वाचपेयी के साथ वाली १९७१ फ़िल्म भी देखी ...बहुत अच्छा काम किया है तुमने ....इसके अलावा हमे क्या मालूम तुम कवितायें भी करते हो....बहुत बढ़िया...सब होशंगाबाद शहर के पानी का प्रताप है...लगे रहो...बधाई

Reetesh Gupta ने कहा…

मानव भाई,

हमारी टिप्पणी पर तुम्हारी प्रतिक्रिया का इंतजार था
लेकिन अब लगता है हम बेकार में ही इंतजार कर रहें हैं

Daisy ने कहा…

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