मंगलवार, 31 अगस्त 2010

प्रकाश...


’गंदगी भीतर ही रखो’ की गालियों के बीच मैं अपनी बात कहता हूँ।
पीछे रह गए बहुत से चित्रों को अपने साथ घसीटता फिरता हूँ।
बद्दुआ देके जाती लड़कियों को दूर तक देखता हूँ,
और माँ से कहता हूँ...... ’अब मैं जा रहा हूँ।’
बहुत तेज़ प्रकाश का मूल कहीं ऊपर...
दूर ऊपर, सबसे ऊपरी माले पर बैठने की कोशिश करता हूं...।
जलने के डर से पूरे शरीर पर शब्दों को गूदता रहता हूँ।
जब भी मुझे आस्था की ज़रुरत होती है मैं किचिन में जाकर चाय बनाता हूँ।

आश्चर्य...


खिड़की से खड़े, पेड़ ताकते हुए..
उस पेड़ को भूल जाना...।
छोटी लाल-गर्दन की चिड़िया का उस पेड़ पर आना-बैठना-उड़ जाना...
पेड़ का उड़कर दृश्य में वापिस आ जाना है।

वह कहीं गायब है...


वह कहीं गायब है...
वह कोने में खड़ा महत्वपूर्ण था।
उसकी जम्हाई में मेरी बात अपना अर्थ खो देती थी।
वह जब अंधेरे कोने में गायब हो जाता तो मैं अपना लिखा फाड़ देता।
वह कहीं गायब है....
’वह फिर दिखेगा’... कब?
मैं घर के कोनों में जाकर फुसफुसाता हूँ।
’सुनों... अपने घर में कुछ फूल आए हैं....’
घंटों कोरे पन्नों को ताकता हूँ... पर घर के कोने खाली पड़े रहते हैं।
फिर जानकर कुछ छिछले शब्द पन्नों पर गूदता हूँ...
उन मृत शब्दों की एक सतही कविता ज़ोर-ज़ोर से पूरे घर को सुनाता हूँ।
कि वह मारे ख़ीज के तड़पता हुआ मेरे मुँह में जूता ठूस दे।
पर वह नहीं दिखता, कभी-कभी उसकी आहट होती है।
मैं जानता हूँ वह यहीं-कहीं है...
क्योंकि जब भी मैं घर वापिस लोटता हूँ,
मुझे मेरा लिखा पूरे घर में बिखरा पड़ा दिखता है।
मुझे पता है जब कभी मैं घर से दूर होता होऊंगा..
वह अंधेरे कोनों से निकलकर मेरे गुदे हुए पन्नों को पलटता होगा...
कुछ पन्नों को फाड़ता होगा... कुछ को मेरे सिरहाने जमा देता होगा।
वह अब मेरे साथ नहीं रहता...
जब मैं होता हूँ तो वह गायब रहता है...
और मेरे जाते ही वह हरकत में आ जाता है।

शनिवार, 21 अगस्त 2010

रुह...


वह बहुत दूर है।
उसकी आँखें कभी चमकती हैं बहुत पास,
मैं बात शुरु करता हूँ वह फिर दूर दिखती है।
रुह जैसी कोई चीज़ नहीं है।
मेरी सांस के साथ जो भी भीतर जाता है वह चिपक जाता है।
रह-रहकर मेरी आँखों की नमी उस चिपके हुए की पपड़ी झड़ाती रहती है।
वह बहुत दूर है।
या तो रुह वह चुंबक है जो सारा जिया हुआ चिपका लेती है,
या रुह वह धरातल है जिस पर पपड़ी का झड़ना बहुत समय तक गूंजता रहता है।
चिपकने और गूंजने के अलावा भीतर कुछ ओर सत्य नहीं है।
हाड़-मांस के इस पिंजरे के भीतर कल्पना की कितनी जगह है?
वह बहुत दूर है।
इस सब में....
वह रुह नहीं है, वह पपड़ी भी नहीं है,
चुंबक तो कतई नहीं...
नहीं रुह जैसी कोई चीज़ नहीं है।
तो वह धरातल में कहाँ सरकती फिरती है?
मैं भीतर उसकी गूंज सहता हूँ,
बात करने जाता हूँ, वह दूर खड़ी मुझे इशारा करती है।
मेरी दूर की नज़र कमज़ोर है...
और आपकी कमज़ोरी हमेशा कल्पना को पंख देती है।
वह बहुत दूर है, और कहीं बहुत भीतर है...
दूर धुंधलके में कहीं जब कुछ हरकत होती है,
तो भीतर कहीं एक पपड़ी झड़ती है...
वह मेरे बहुत करीब कानों में कुछ फुसफुसाती है...
और इस बार मैं उसका कोई जवाब नहीं देता हूँ।

आप देख सकते हैं....

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