मंगलवार, 31 अगस्त 2010

प्रकाश...


’गंदगी भीतर ही रखो’ की गालियों के बीच मैं अपनी बात कहता हूँ।
पीछे रह गए बहुत से चित्रों को अपने साथ घसीटता फिरता हूँ।
बद्दुआ देके जाती लड़कियों को दूर तक देखता हूँ,
और माँ से कहता हूँ...... ’अब मैं जा रहा हूँ।’
बहुत तेज़ प्रकाश का मूल कहीं ऊपर...
दूर ऊपर, सबसे ऊपरी माले पर बैठने की कोशिश करता हूं...।
जलने के डर से पूरे शरीर पर शब्दों को गूदता रहता हूँ।
जब भी मुझे आस्था की ज़रुरत होती है मैं किचिन में जाकर चाय बनाता हूँ।

6 टिप्‍पणियां:

Apanatva ने कहा…

sunder abhivykti .

Gwalior Ltd ने कहा…

जब भी मुझे आस्था की ज़रुरत होती है मैं किचिन में जाकर चाय बनाता हूँ

bahut sundar pankti

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

अजीब सी कविता...

पारुल "पुखराज" ने कहा…

ठीक बात
अंदर कुछ टूटे तो बाहर कुछ "बनाते" रहना चाहिये

Zorba ने कहा…

अभी ये कहना चाहूँगा के
में तुम से गले मिल के काफी
हद तक रो सकता हु.

Daisy ने कहा…

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