
अपनी छोटी सी मर्यादा के भीतर काम करते हुए...
भूख चार फल्लांग बाहर... पड़ी दीखती है।
अपनी मर्यादा का बिस्तरा...
भूख के पास जाते ही कटोरा हो जाता है।
सपने में खाते रहने से भूखा हूँ का भय,
’क्या भूखा ही रहूगाँ?’ तक पहुच जाता है।
भूख चार फल्लांग बाहर... पड़ी दीखती है।
अपनी मर्यादा का बिस्तरा...
भूख के पास जाते ही कटोरा हो जाता है।
सपने में खाते रहने से भूखा हूँ का भय,
’क्या भूखा ही रहूगाँ?’ तक पहुच जाता है।
’अतीत की मिट्टी खोदते रहने से आलू मिलेगें’ की कला मैंने कभी सीखी नहीं।
सीखूगाँ की उम्र भी बिस्तरे में पड़े-पड़े मैं बिता चुका हूँ।
भूख और मर्यादा के बीच में रेंगते हुए...
रात, माँ की कोमल उंगलियों की तरह काम करती है...।
सपने में भूख का भय, अपने से दूर हो जाने का भय है।
बिस्तरा कभी-कभी मुझे पसीने की नदी लगता है....
जिसमें गोते लगाकर,
भाग-भागकर मैं लगातार खुद को ढूढ़ंता रहता हूँ।
बिस्तरे पर भागते-भागते जब भी थक जाता हूँ,
तो आँखों के सामने... ढेरों आलू पड़े मिलते हैं।
’तुम आलू क्यों नहीं हो जाते हो...?’
यह प्रश्न अपने, बड़े अपनेपन से पूछते है।
आलू हो जाना, आलू को खाने जितना सरल है।
’फायदे’ जैसे शब्द इसके साथ बहते चले आते हैं।
सोचता हूँ आलू हो जाऊँ...
और खत्म कर दूँ इस बिस्तरे और कटोरे के बीच के खेल को।
पता नहीं कहाँ से...
रेंगते हुए कुछ शब्द, शरीर छूने लगते है।
एक कुँआ दीखने लगता है,
छप-से एक गेंद उसमें गिर जाती है...
और मैं कूद पड़ता हूँ।
एक कुँआ दीखने लगता है,
छप-से एक गेंद उसमें गिर जाती है...
और मैं कूद पड़ता हूँ।
1 टिप्पणी:
father's day gifts online
father's day cakes online
father's day flowers online
एक टिप्पणी भेजें