शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

बरग़द...


कतरे पन्ने हाथ में,

एक टूटा हुआ पेन...

लंगड़ाते-लंगड़ाते एक दिन मैं रास्ता पार कर लूगां।

अपनी थूक से पेन की निब को गीला करके...

मैं गाड़ियों को रोकूगाँ।

उनकी रफ्तार को महज़ सांस लेने की सरलता तक ले आऊगाँ।

अगर तो वह चीख़ते-चिल्लाते हुए अपने हार्न बजाने लगेगें...

तो मैं सड़क के उस तरफ उन्हें...

ज़मीन पर लेटा पड़ा बरग़द दिखाऊगाँ।

मैं डरते-डराते रास्ता पार नहीं करुगाँ।

गर रफ्तार फिर भी नहीं थमी...

तो मैं अपने सारे कतरे पन्ने.. हवा में उड़ा दूगाँ।

जब वह फड़फड़ाते हुए नीचे आएगें...

तो मैं उन कतरे पन्नों के नीचे...

लंगड़ाता-लड़खड़ाता नाचूगाँ।

अपने टूटे हुए पेन को...

बीच रास्ते में गड़ा दूगाँ।

जब अंत में सब खाली हो जाएगा...

तो मैं सीधे चलते हुए..

रास्ते के उस तरफ जाऊगाँ...

और उस उखड़े पड़े बरग़द से लिपटकर...

सो जाऊगाँ...।

 

मंगलवार, 16 जून 2009

‘करच-करच, खरच-खरच..’


कोई पीछे खड़े होकर कहता है...

खरगोश... मेरे दोनों कान खड़े हो जाते है।

शिकारी ढूढ़ने का गुण मेरे खून में है।

भागकर अपने कोनों में छुप जाना मेरा हथियार है।

कोनों में दुबके हुए शिकारी की कल्पना, मेरा खेल है।

मेरा कोना जिस घर में है...

उसमें गाजर का आगन है।

भूखे पेट मर जाने से,

 शिकारी का सामना करने का इतिहास मैंने रटा है।

इतिहास को तोड़-मरोड़कर...

मैं चोर हो जाता हूँ।

डरा हुआ देर रात गाजर खाने निकलता हूँ।

‘करच-करच, खरच-खरच..’ की आवाज़ से खुद ही डर जाता हूँ।

गाजर खाना बंद करके, यहाँ वहाँ ताकता हूँ।

शिकारी, मेरा मकान मालिक सो रहा है।

उसका किराया, मेरा काम है।

मुझे पता है एक दिन वह मुझे खा जाएगा।

बचने की सारी कोशिशों की मेरी कहानियाँ...

खत्म हो जाने के डर की ‘करच-करच, खरच-खरच..’ में....

देर रात, चोरी से पाई हुई गाजर हैं...।

मंगलवार, 19 मई 2009

समुद्र...


बहुत देर तक समुद्र को देखते रहने से,

 उसपर चलने लगूगाँ का सा भ्रम होता है।

गर चल देता तो आश्चर्य होता,

कि देखो मैं समुद्र पर चल रहा हूँ।

कुछ देर चलते रहने से,

मैं समुद्र पर चलता हूँ!’ यह बात सामान्य हो जाती।

आश्चर्य की आदत, जो हमें पड़ गई हैं।

वह अगला आश्चर्य- उड़ने का जगाती।

हक़ीकत के नियम लोग बताते कि आदमी उड़ नहीं सकता है।

मैं शायद भवरें का उदाहरण देता...

कि उसे भी नियमानुसार उड़ना नहीं चाहिए!!!

पर अंत में मैं उड़ नहीं पाता....शायद।

वापिस घर जाने के रास्ते पर... चलते हुए।

समुद्र पर चल सकता हूँ...

सपना लगता...

और मैं सो जाता।

विश्वासघात...


एक रत्ति विश्वास को गर गांठ में बांध लूं,

तो कह सकता हूँ कि....

वह विश्वास घात था।

नींद थी... सपना सा कुछ था।

खुद का, बहुत बड़ा सा एक पत्थर बना,

कांच की एक मेज़ पर टिक के पड़ा था।

एक छोटी चिड़ियाँ, दूसरी छोटी चिड़िया की नकल कर रही थी।

तन्हा नाम का एक बाज़ ऊपर आसमान में चक्कर काट रहा था।

एक पेड़ के कटने की आवाज़ दूर कहीं से आ रही थी।

उसी पेड़ पर एक आवाज़ और थी...

अपनी चोंच से...

छोटे-छोटे वार करती हुई एक चिड़ियाँ...

 अपना घर बना रही थी।

चिड़ियाँ को पेड़ पर विश्वास था।

पेड़ को ज़मीन पर... आसमान पे।

और विश्वासघात,

उस आदमी का घर था, जिसके लिए वह पेड़ काट रहा था।

रविवार, 17 मई 2009

आवाज़...

 

लंबे चले आ रहे सन्नाटे में...

दो बूंद आवाज़ की पड़ी।

दूर एक चिड़ियाँ,

अपना घर बनाने में...

चोंच को पेड़ पर मार रही थी।

रंग...


अगर मैं तुम्हें पेंट कर सकता तो...?

रंगों के इस जमघट में...

कौन सा रंग हो तुम???

नीला... आसमान सा कुछ..?

गुलाबी तो कतई नहीं..

या हरा..  गहरा घने पेड़ जैसा कुछ।

पीला तो नहीं हो..

सफेद!!!.. नहीं, नीरस सफेद नहीं.. बादलों सा भरा हुआ सफेद।

कौन सा रंग हो तुम?

 तुम्हें बनाते हुए...अक़्सर मैं,

 बीच में ही कहीं छूट जाता हूँ।

उन रंगों में... उन ब्रश के चलाने में..

पकड़ा-सा जाता हूँ मैं...

पहाड़ों और नदियों के बीच, खाली पड़ी जगह में कहीं।

रंगों में लिपा-पुता जब भी मैं तुमसे मिलता हूँ...

तुम पूछती - यह क्या मैं हूँ?

मैं कह देता... ’अभी यह पूरा बना नहीं है...

मैं कहना चाहता हूँ कि...

तुम बन चुकी हो...

यह तुम ही हो..

मैं तुम्हारा देर तक अकेले खेलनारंगना चाहता हूँ।

नहीं तुम्हारा अभी का खेलना नहीं..

तुम्हारे बचपन का खेल..

पर..

 किसी रंग में तुम अकेले मिलती हो..

तो कोई रंग महज़ तुम्हारे साथ खेलता है।

तुम बन चुकी हो...

 पर वह रंग मैं अभी तक बना नहीं पाया जो...

अकेले खेल सकें...

कत्थई फूल...


 

जले हुए कागज़ों पर वह अपना नाम ढूंढ़ती थी।

हाथ काले होने के डर से...

फूंक-फूंक कर पूछती थी।

कत्थई बड़े-बड़े फूलों को सुखा देती थी,

पढ़ी हुई किताबों के बीच में छिपा के सोती थी।

रोने की एक छोटी सी जगह पर,

देर तक खड़ा रखती थी।

दूसरों के आईनों में खुद को देखा करती थी।

उन आईनों के सुरक्षित धेरे में मैं नहीं बंध पाया।

बेईमानी की रेत पर ईमानदारी की एक छतरी मैं खोले रहा।

छतरी की छाह... ओकात की चादर जितनी छोटी थी..

मैं पैर फैलाए अकेले पड़ा रहा।

लोग धूप-छाँव के खेल में...

भीतर-बाहर जलते रहे।

पढ़ी हुई काफ़्का की किताब में...

सूखे कत्थई फूल मैं चुनता रहा।

जले हुए नामों को अकेले में पढ़ता रहा।

दूसरों की नमी को अपने लिखे में महसूस किया।

अपनी छोटी सी चादर पर, बहुत सी पढ़ी हुई किताबें लिए, बहुत देर तक बैठा रहा।

पढ़ी हुई किताबें,

अभी भी...

 पढ़ी जाना बाक़ी रहीं।

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

श्रम...


क्या हमारा श्रम तोला जा सकता है?
क्या कहा जाएगा कि ’इसका तो इतना ही होगा भाई’
या कहा जाएगा कि ’यह काफी नहीं है।’
मैंने श्रम दान किया है...
इस तरह की कोई बात भीतर से उठेगी,
और मेरा सारा श्रम...
हाशिए पर रख दिया जाएगा।
यूं बाज़ार में भाव-तोल करना मेरे खून में है,
धोखा खा जाऊगाँ का डर हमेश बना रहता है।
पर अपने श्रम के साथ भाव-तोल जाता नहीं,
हाँ यह दोग्लेपन की बात है,
पर यह अंतर्मुखी श्रम है...
इसमें श्रम,
अंतर्मुखी नाम की एक चिड़िया करती है।
और उस श्रम को बाहर कोई ओर सहता है।
डरा हुआ मैं बाहर हूँ...
इसलिए वह भीतर उड़ती फिरती है।
यहाँ डर धोखे का नहीं है...
यहाँ डर है...
उस चिड़िया का पसीने में बदल जाना।

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

दर्शक...



वह कहती थी इसे बचाकर रखते हैं....
यह हमारी धूप है...
जब हम ठिठुर रहे होगें तो यह काम आएगी।


फिर यहाँ वहाँ कुछ काँटे भी बीना करती थी....
कहती थी... जब दूसरे गड़ेगें तो इनसे उन्हें निकालूगीं...।


कुछ चीज़े छाती से चिपकाकर बुनती रहती थी....
कहती थी... जब हमारे जैसे कोई होगें तो उन्हें पहनाऊगीं।


सुबह उठते ही घर जमाती, और शाम को घर सजाना सोचती।
सुबह खुश रहती, शाम होते ही चुप हो जाती।


कहती थी सपने सच्चे होते है
जब सोती थी तो कुछ बुदबुदाती रहती थी।
उस बुदबुदाहट के कुछ पात्र थे, आवाज़े थी, हँसी थी।
वह दूसरी दुनियाँ थी...।
जब तक मैंने उस दुनियाँ को जाना, सुना..
मैं दर्शक हो गया।

बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

ख़त...


ख़त, तुल्नात्मक अध्ययन में...
हमेशा धीमी गति से चलने वाला... घोड़ा होगा।
पर भाव फेंकना,
गर प्रमुख है,
तो मैं इस घुड़सवारी के खेल में,
खच्चर होना चाहूगाँ।


और अगर इस खेल में गति प्रमुख है...
तो मैं तुम्हारा नाम लिखने में ही...
बहुत पहले यह खेल हार चुका हूँ।

सोमवार, 26 जनवरी 2009

आलू...


अपनी छोटी सी मर्यादा के भीतर काम करते हुए...
भूख चार फल्लांग बाहर... पड़ी दीखती है।
अपनी मर्यादा का बिस्तरा...
भूख के पास जाते ही कटोरा हो जाता है।
सपने में खाते रहने से भूखा हूँ का भय,
’क्या भूखा ही रहूगाँ?’ तक पहुच जाता है।


’अतीत की मिट्टी खोदते रहने से आलू मिलेगें’ की कला मैंने कभी सीखी नहीं।
सीखूगाँ की उम्र भी बिस्तरे में पड़े-पड़े मैं बिता चुका हूँ।
भूख और मर्यादा के बीच में रेंगते हुए...
रात, माँ की कोमल उंगलियों की तरह काम करती है...।

सपने में भूख का भय, अपने से दूर हो जाने का भय है।
बिस्तरा कभी-कभी मुझे पसीने की नदी लगता है....
जिसमें गोते लगाकर,
भाग-भागकर मैं लगातार खुद को ढूढ़ंता रहता हूँ।

बिस्तरे पर भागते-भागते जब भी थक जाता हूँ,
तो आँखों के सामने... ढेरों आलू पड़े मिलते हैं।

’तुम आलू क्यों नहीं हो जाते हो...?’
यह प्रश्न अपने, बड़े अपनेपन से पूछते है।
आलू हो जाना, आलू को खाने जितना सरल है।
’फायदे’ जैसे शब्द इसके साथ बहते चले आते हैं।
सोचता हूँ आलू हो जाऊँ...
और खत्म कर दूँ इस बिस्तरे और कटोरे के बीच के खेल को।

पता नहीं कहाँ से...
रेंगते हुए कुछ शब्द, शरीर छूने लगते है।
एक कुँआ दीखने लगता है,
छप-से एक गेंद उसमें गिर जाती है...
और मैं कूद पड़ता हूँ।

आप देख सकते हैं....

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