
बहुत देर तक समुद्र को देखते रहने से,
उसपर चलने लगूगाँ का सा भ्रम होता है।
गर चल देता तो आश्चर्य होता,
’कि देखो मैं समुद्र पर चल रहा हूँ।’
कुछ देर चलते रहने से,
’मैं समुद्र पर चलता हूँ!’ यह बात सामान्य हो जाती।
आश्चर्य की आदत, जो हमें पड़ गई हैं।
वह अगला आश्चर्य- उड़ने का जगाती।
हक़ीकत के नियम लोग बताते कि आदमी उड़ नहीं सकता है।
मैं शायद भवरें का उदाहरण देता...
कि उसे भी नियमानुसार उड़ना नहीं चाहिए!!!
पर अंत में मैं उड़ नहीं पाता....शायद।
वापिस घर जाने के रास्ते पर... चलते हुए।
समुद्र पर चल सकता हूँ...
सपना लगता...
और मैं सो जाता।
7 टिप्पणियां:
मुझे तो आपकी कविता बहुत अच्छी लगी
वीनस केसरी
very good, bhai saab!
पहली बार आया आपके ब्लोग और पहली नजर में भा गया। और आपके लेखन को पढा तो दिल खुश हो गया। अब आना जाना लगा रहेगा।
वाह ! कविता खूबसूरत है । आज ही आपके दोनों ब्लॉग पहली बार पढ़े ।
यहाँ समन्दर पे चलने कि बात हो रही है ..सुन्दर है !
हम तो सड़क पे ही चल के अचरज से भरे रहते हैं ..! उड़ने जैसा ही लगता रहता है..हमेशा..!
सभी उडें और उड़ना आदत में न ढले,हमेशा आश्चर्य से भरता रहे , ऐसी शुभकामना मैं पूरी मनुष्यता के लए रखती हूँ .
अच्छा काम ! प्रतिभा का आभार इस ठिकाने में लाने के लिए .
लिखते रहिये .
शुभकामनाओं सहित
-बाबुषा
very nice Manav keep it up..
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