मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

'धुंध...'



एक धुंध है-
जो धीरे-धीरे, परत-परत
सब कुछ भुलाती जाती है।


एक इच्छा है-
जो कहती है.. चल,
फिर हल्के-हल्के उस धुंध को मिटाती जाती है।


एक मन है-
जो कुछ नया जीने में धुंध को धुंआ देता है,
और अपने ही जीए हुए साल के साल गायब हो जाते हैं।


कुछ चेहरे हैं-
जो इसलिए धुंध में खो गए थे,
कि हम बड़े हो सकें...
और हम बड़े होते गए।


एक आस्था है-
जो उस माँ की तरह है,
जो मरने तक आपका साथ देती है।


एक हमारी आस्था है-
जो उस माँ की तरह है,
जो हमेशा दरवाज़ा खटखटाती रही...
पर हम घर पर थे ही नहीं।


एक दुनिया है-
जो कैसे चलती है का पता नहीं है,
पर इस दुनिया में मैं कैसे चलूँगा...
की ज़िद्द बड़ी है।


एक ज़िद्द है-
जो उस मकान की तरह है,
जिसकी किस्तें आपको पूरी ज़िंदगी देना पड़ता है।


एक दर्द है-
जो दीवाली के पटाखों की तरह आस पास ही फूटता है,
और अगर नहीं फूटे...
तो अचानक फूट पड़ेगा का डर हमेशा बना रहता है।


एक लड़ाई है-
जो बड़े दुश्मन के खिलाफ़ शुरु हुई थी,
पर अब बहुत से कारणों के साथ...
सारे विरोधी.. अपने ही खेमे में हैं।


कुछ तर्क हैं-
जो छुट्टे पैसों की तरह..
लोगों की जेबों में पड़े रहते हैं...
जब भी चलते हैं.. खनक उठते हैं।


एक धर्म है-
जो रात में आपके उस काम की तरह होना चाहिए...
जिसकी चर्चा आप सुबह...
अपनी माँ से नहीं कर सकते।


एक धर्म है-
जो उस पहलवान की तरह हो गया है...
जिसके नाम की आड़ में कोई भी पत्थर चला सकता है।


एक अकेलापन है-
जो उस फोड़े की तरह है,
जिसके साथ रहने की अगर आपको आदत न हो...
तो वो नासूर बन जाता है,
और अगर आदत पड़ जाए...
तो अकेले.. उसे खुजाने में बहुत मज़ा आता है।


एक खोज है-
जो घर में चश्मा ढूँढने जैसी है...
जब ढूँढ-ढूँढकर थक जाओ...
तब मुँह पे पड़ा मिलता है।


एक भगवान हैं-
जो सर्कस के जोकर हो गए हैं,
जब तक चमत्कार दिखाएंगे...
इस सर्कस में बने रहेंगें।


एक अहिंसा है-
जिसका सिक्का लिए..
गाँधी जी हर शहर के बीच में खड़े हैं।
पर जब भी सिक्का उछालते हैं..
हिंसा ही जीतती है।


एक त्रासदी है-
कि हमें कविताएं समझ में नहीं आती...


एक त्रासदी है-
कि हम सब जानते हैं...


और एक त्रासदी है-
कि ये सपने हैं...
पता नहीं क्यों?
साले अभी भी आते हैं।

'हँसना, मुस्कुराना!'



अब मैं एक तरीके से मुस्कुराता हूँ,
और एक तरके से हँस देता हूँ।

जी हाँ, मैंने जिंदा रहना सीख लिया है।


अब जो जैसा दिखता है,
मैं उसे वैसा ही देखता हूँ।
जो नहीं दिखता वो मेरे लिए है ही नहीं।


अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,
मैं एक सफल मध्यमवर्गीय रास्ता हूँ।
रोज़ घर से जाता हूँ,
रोज़ घर को आता हूँ।
अब मुझ पर कुछ असर नहीं होता।


या यूँ समझ लीजिए कि,
मेरी जीभ का स्वाद छिन गया है।
अब मुझे हर चीज़ एक जैसी सफेद दिखती है।


अब मुझे कुछ पता नहीं होता,
पर 'सब जानता हूँ'- का भाव मैं अपने
चहरे पर ले आता हूँ।


हर किस्से पर हँसना, आह भरना, मैं जानता हूँ।


अब मैं खुश हूँ...
नहीं- नहीं खुश नहीं,
अब मैं सुखी हूँ- सुखी।


क्योंकि अब मैं बस जिन्दा रहना चाहता हूँ।
अब ना तो मैं उड़ता हूँ, ना बहता हूँ।
मैं रुक गया हूँ...
आप चाहे कुछ भी समझो...
मैं अब तटस्थ हो गया हूँ।
अब मैं यथार्थ हूँ।
नहीं- यथार्थ-सा हूँ।


"मुझे अपनी कल्पना की गोद में सर रखकर सो जाने दो,
मैं उस संसार को देखना चहता हूँ,
जिसका ये संसार... प्रतिबिंब है।"-
अब ये सब बेमानी लगता है।


अब तो मेरा यथार्थ...
मेरी ही पुरानी कल्पनाओं पे हँसता है।


अरे हाँ !!! आजकल मैं भी बहुत हँसता हूँ।
कभी कभी लगता है ये बीमारी है...
पर ये सोचकर फिर हँसी आ जाती है।


अब सब चीज़ जिस जगह पर होनी चाहीए...
उसी जगह पर है।
ये सब काफी अच्छा लगता है।
अच्छा नहीं,
ठीक- हाँ ठीक लगता है।


पर...
पर एक परेशानी है!
अजीब सी, अधूरी...
क्या बताऊँ... मुझे आजकल रोना नहीं आता।
अजीब लगता है ना,
पर ये अजीब सच है,
मुझे सच में रोना नहीं आता।


जैसे- अब मुझे सुख या दुख से...
कोई फ़र्क नहीं पड़ता,
क्योंकि वो जब भी आते हैं...
एक झुँझलाहट या एक हँसी से तृप्त हो जाते हैं।


अजीब बात है न...
नहीं, ये अजीब बात नहीं है,
ये एक अजीब एहसास है....
जैसा कि- आप मर चुके हो और कोई यकीन न करे।


रोज़ की तरह लोग आपसे..
बातें करें...
चाय पिलाएं...
आप के साथ धूमने जाएँ...
और सिर्फ आपको ये पता हो कि अब आप ज़िन्दा नहीं है।


मैं जानता हूँ..
ये एक रुलादेने वाला एहसास है।
पर..
आप आश्चर्य करेंगे...
फिर भी मुझे आजकल रोना नहीं आता।

'विश्वासघात..'



'दुनिया चल रही है'- में..
मैं हर रात सोता हूँ लगभग..


एक विश्वास के साथ,
कि मैं हर सुबह उठूंगा
और वहीं से... फिर से जीना शुरु कर दूंगा,
जहां से मैंने- पिछली रात जीना छोड़ा था।


ये मृत्यु को चख़ने जैसा भी है,
उसका स्वाद लेना
और फिर जीने लगना।


हर बार ऎसा करते रहने में...
उस विश्वास में विश्वास इतना बढ़ जाता है कि-
'मृत्यु को चख कर वापिस आना'
स्वाभाविक लगने लगता है...
सामान्य सी बात।


पर तभी..
उस क्षण आप डर जाते हैं,
जब किसी सुबह आप हड़बड़ा कर उठते हैं।
कुछ समय लगता है... वापिस,
फिर इसी दुनियाँ में आने में।
क्या था ये?
नींद?
या मृत्यु?
सपना कुछ भी नहीं था,
बस एक काली छाया थी।
जिसे आप जैसे-तैसे चकमा देकर बाहर निकल आए,
वापिस इस दुनियां में।


और तब पहली बार...
आप उस विश्वासघात को सूंघ लेते हैं,
जो आज तक आपके साथ,
विश्वास नाम से बड़ा हो रहा था।

'बीमारी..'



खुद-ही का चला हुआ,
पराए लोगों की तरह याद आता है।
और जो अभी चलना है,
वो दिखते ही थका देता है।


फिर मैं चल नहीं पाता..
मैं बैठ जाता हूँ...


हर ऎसे समय,
अपने साथ काफी समय बैठने के बाद,
मैंने जब भी अपनी जेब में हाथ डाला है।
मुझे वहाँ लोग पड़े मिले हैं।


जेब के कोनो में...
अपनी सारी जटिलता लिए,
चुप-चाप,
दुबके-सहमे..बीमार लोग।


ग़लती मेरी ही है।
मैं ही इन सबका इलाज,
दूसरो की जेबों,
और आँखो में ढूँढता हूँ।


इन सभी की कहानियाँ कह्के,
मैं इन सबका इलाज कर सकता हूँ...


पर इसके लिए मुझे एक बीमारी चाहिए,
जिसका,
इन लोगों की तरह मुझे भी इंतज़ार है।

सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

'तुम्हारी उंगलियाँ...'



खामोश एक आवाज़ आती थी,
और मैं कहानी सुनना शुरु कर देता था।

कहानियाँ... हमारा पूरा संबंध ये शब्द है।
कहानियाँ...
मुझे पता ही नहीं चला कब,
तुम्हारी उंगलियों ने कहानी कहना सीख लिया।

कब...
वो कौन सा पहला मौका था,
जब तुम्हारी उंगलियां हिली थी,
और मैंने एक कहानी को बाहर निकलते हुए देखा था..
धीरे से।

वो कहानी, अब मुझे याद नहीं,
पर मुझे याद है- मैं हस दिया था।
तुमने पूछा था-
'क्यों... हँस क्यों रहे हो?'
मैंने कहा था-
'बेवजह...'
हाँ, बेवजह ही कहा था मैंने।

क्या वजह है, जो मैं ये हमारा 'कहानी का संबंध"
तुम्हीं से नहीं कह सकता हूँ,
तुम्हारा वो कौन सा हिस्सा है,
जो इसे मेरे साथ जी रहा होता है,
जिसके बारे में तुम्हें ही नहीं मालूम।
और फिर तुम आश्चर्य से पूछती हो-
'क्यों?, मुस्कुरा क्यों रहे हो?'
और मैं कह देता हूँ-
'बेवजह..'

तुम्हारी कहानियाँ...
मैंने कहानी की उस दुनियां को देखा है... जिया है।
जो तुम्हारी उंगलियां यूँ ही कह देती थीं।

मैं कभी-कभी सोचता हूँ,
कि मैं किसे ज़्यादा चाहता हूँ?
तुम्हें...
या तुम्हारी उंगलियों को जो कहानी कहती हैं।

मैंने कई बार तुम्हारी उंगलीयों पर,
अपना हाथ रख दिया है और पूछा है-
'कैसी हो?'...
बेवजह...
सच बेवजह !!!

असल में तुम्हारी कुछ कहानियाँ सच कहती हैं।
सीधा..
हमारा..
सपाट... सच।
जिसे मैं नहीं जानना चाहता।

मुझे घर में दीमक जैसे सच ठीक लगते हैं।
जो घर मैं हैं.. ये दोनों को पता है,
पर वो दिखे न..
उन्हें 'पता है'- की आड़ में रहने दो।

पर जब वो दीमक जैसे सच...
तुम्हारी उंगलीयों से बाहर कूदने लगते हैं...
तब..
मैं अपना हाथ तुम्हारी उंगलियों पे रखता हूँ,
और पूछता हूँ-
'कैसी हो... बेवजह'।

'परछाईंयाँ...'





मेरी परछाईयों के अंधेरे में,
पता नहीं कितनी परछाईयाँ दबी हैं, छिपी हैं।



वो जो कभी मेरे साथ थी,
और वो जो कभी थी ही नहीं।



जाने कितनी परछाईयों के अंधेरे कोने,

मेरी परछाई में छूट गये हैं।
कई परछाईयाँ अपने बाल छोड़ गयीं।
कई अपनी आँखे,
तो कईयों की सिर्फ उँगलियाँ ही मेरे पास है।



अब ये छूटे हुए अंधेरे,
मेरी परछाईं की तरफ देखकर ताकते हैं...
कुछ रंग ढूँढ़ते हैं...
तो कुछ शब्द...।



मैं अपनी परछाईं का बढ़ता हुआ मौन महसूस करता हूँ।



पर क्या करुं?
मैंने ही अपने हाथों से,
ये सारे परछाईंयों के अंधेरे बटोरे हैं।
और अब अपनी ही परछाईं के साथ चलने में...
आजकल मैं थक जाता हूँ।

'शक्कर के पांच दाने'



शक्कर के पाँच दाने जादू हैं।
जिनके पीछे चीटियाँ भागती हैं।


दो दानों पर पहुँचती हैं,
तीन आगे दिखते हैं।
भागकर बाक़ी सारी चीटियों को बुला लेती हैं।


पाँचवे दाने पर पहुँच जाती हैं,
मगर पीछे के दो दानों को भूल जाती हैं।
फिर वही दो दाने आगे मिलते हैं।
वो जादू में फस जाती हैं,
और घूमती रहती है।


ये खैल कभी खत्म नहीं होता।
क्योंकि चींटियाँ तलाश रहीं हैं, खेल नहीं रही।
जादूगर एक है जो खैल रहा है।

'एक पल'



वक्त इतना छोटा हो गया था,
जैसे हाथ में बंधा हो।
जगह इतनी बड़ी हो गई थी,
जैसे उसका चश्मा आँखो में लगा हो।

इसी,
जगह-और-वक्त के बीच में कहीं,
एक पल हमने जिया है।

उस पल में-
एक पगडंडी थी,
जिसके बगल से पानी बह रहा था।

उसमें पेड़ से अभी-अभी गिरे एक पत्ते सा,
हमारा वर्तमान बह रहा था।

उस सूखते हुए वर्तमान में तभी मैंने,
अभी-अभी जिए हमारे पल का संघर्ष देखा।

वो एक कीड़े सा,
उस सूखते हुए पत्ते के छोर पर,
निकलकर बैठ गया था।

मानो वो अतीत के गहरे समुद्र में,
एक स्वप्निल याद सा,
बचा रह जाना चाहता हो।

'चोरी से...'



बहुत पहले...
अब तो मुझे याद भी नहीं कब,
मैंने अपने हाथ पर लिख दिया था- 'प्रेम'।


क्यों ? क्यों का पता नहीं,
पर शायद ये-
मेरे भीतर पड़े सूखे कुंए के लिए,
बाल्टी खरीदने की आशा जैसा था।
सो मैंने इसे अपने हाथ पर लिख दिया-'प्रेम'।


आशा?
आशा ये कि इसे किसी को दे दूंगा।
ज़बरदस्ती नहीं, चोरी से...


किसी की जेब में डाल दूंगा,
या किसी की किताब में रख दूंगा,
या 'रख के भूल गया जैसा'- किसी के पास छोड़ दूंगा।


इससे क्या होगा ठीक-ठीक पता नहीं...
पर शायद मेरा ये- 'प्रेम'
जब उस किसी के साथ रहते-रहते बड़ा हो जाएगा,
तब...
तब मैं बाल्टी खरीदकर अपने सूखे कुंए के पास जाउंगा,
और वहां मुझे पानी पड़ा मिलेगा।


पर एसा हुआ नहीं,
'प्रेम' मैं चोरी से किसी को दे नहीं पाया,
वो मेरे हाथ में ही गुदा रहा।


फिर इसके काफी समय बाद...
अब मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कब,


मुझे तुम मिली और मैंने,
अपने हाथ में लिखे इस शब्द 'प्रेम' को,
वाक्य में बदल दिया।
"मैं तुमसे 'प्रेम' करता हूँ"
और इसे लिए तुम्हारे साथ घूमता रहा।
सोचा इसे तुम्हें दे दूंगा।
ज़बरदस्ती नहीं.... चोरी से,


तुम्हारे बालों में फसा दूंगा,
या तुम्हारी गर्दन से लुढ़कती हुई पसीने की बूंद के साथ,
बहा दूंगा।
या अपने किस्से कहानियाँ कहते हुए,
इसे बी़च में डाल दूंगा।


फिर जब ये वाक्य,
तुम्हारे साथ रहते-रहते बड़ा हो जाएगा,
तब मैं अपने कुंए के पानी में,
बाल्टी समेत छलांग लगा जाउंगा।


पर ऎसा हुआ नहीं,
ये वाक्य मैं चोरी से तुम्हें दे नहीं पाया।
ये मेरी हथेली में ही गुदा रहा।


पर अभी कुछ समय पहले...
अभी ठीक-ठीक याद नहीं कब,
ये वाक्य अचानक कविता बन गया।
'प्रेम' - "मैं तुमसे 'प्रेम' करता हूँ",
और उसकी कविता।


भीतर कुंआ वैसा ही सूखा पड़ा था।
बाल्टी खरीदने की आशा...
अभी तक आशा ही थी।
और ये कविता!!!


इसे मैं कई दिनों से अपने साथ लिए घूम रहा हूँ।
अब सोचता हूँ,
कम से कम,
इसे ही तुम्हें सुना दूँ।


नहीं.. नहीं.. ज़बरदती नहीं,
चोरी से... भी नहीं,
बस तुम्हारी इच्छा से...।

'दरवाज़े...'



सबके सामने नंगा होने का डर इतना बड़ा है,
कि मैं घर हो गया हूँ।


दो खिडकी, और एक छोटे से दरवाज़े वाला।
जहाँ से, मुझे भी घिसटकर निकलना पड़ता है।


किसी के आने की गुंजाईश, उतनी ही है,
जितनी मेरे किसी के पास जाने की।


सबके अपने-अपने घर हैं।
अपने डर हैं।
इसलिए अपने किस्म के दरवाज़े हैं।

रविवार, 24 फ़रवरी 2008

'पर्यटक..'



गीली भरी हुई आँखो के पीछे,
कौन सी नदी किस तरह के उफान पर है।
मैंने उसका उदगम कभी नहीं जाना।


मैं दर्शक था...
एक तरह का पर्यटक जैसा,
जो उन गीली भरी हुई आँखो के सामने,
बस पड़ गया था।


मैंने जाने कितनी बाढ़ें देखी हैं।
सड़क पर,

गली में,
अपनों की,

शहरों की...


'पर बारिश खत्म होगी',
'नदी शाँत होगी'- के अंत ने,
मुझे हमेशा पर्यटक ही रहने दिया।


न मैं किसी गीली भरी हुई आँखो का उदगम जान पाया।
और न ही किसी नदी को उसके अंत तक...
उसकी खाड़ी तक ही कभी छोड़ पाया।


मैं बस पर्यटक ही बना रहा।

'शब्द द्रृश्य...'



एक वो जो 'छू गया होता भीतर तक'- सा शब्द,
तुमने कहा नहीं... दिखा दिया।

मैं वहीं था,
उस अनकहे शब्द से बने, द्रृश्य के सामने।
एकटक खड़ा,
अपनी अधूरी नींद के बारे में सोचता सा।

किसी शब्द के हिज्जे कर दिए सा,
वो द्रृश्य मैंने देखा था तब...
वो आज इतने सालों बाद, जुड़ा है पूरा।

सीधा शब्द कह देने का संस्कार तुममें नहीं था,
और द्रृश्य का अर्थ जानने की समझ मुझमें नहीं।

तुम बहुत आगे थी...
मैं वहीं खड़ा था...
तुम अब ओझल हो...
तो ये द्रृश्य बना है।

पहले मैं भाग रहा था।
अब मैं.. स्थिर, नज़रें झुकाए वहीं खड़ा हूँ।

'सूखी पंखुड़ियाँ...'



यहीं पे खड़ा था मैं।
पहाड़ के, इसी छोर पर...


जब अचानक मैंने तुम्हें सूंघा था।
तुम्हारे शरीर की गंध...


घबराकर इधर-उधर देखा।
तुम नहीं थी, तो कया था ये? कल्पना?
नहीं मैंने तुम्हें सूंघा था- सच!


फिर अपने कपड़ों पर निगाह गई,
कहीं मैंने तुम्हारा कुछ पहना तो नहीं हैं...
स्वेटर... रुमाल..या...


जेब में हाथ गया,
तो उस पहाड़ के छोर पर खड़े हुए...
मैं मुस्कुरा दिया।


कुछ फूल की सूखी पंखुड़ियाँ जेब में पड़ी थीं...
जाने कब से।


जब तक मैं उन्हें सूंघ पाता,
वो मेरी जासूस बन उड़ गई उस ओर...
जहाँ- पहली बार उन्होंने, मेरे साथ,
तुम्हारी सुगंध को बटोरा था।

'दिन की चालाकी...'



दिन में हम काफी चालाक होते हैं।
हम बड़ी चतुरता से दिन गुज़ार देते हैं।
असल में दिन बड़े भोले होते हैं,
उन्हें छला जा सकता है।


मगर शाम, शाम की नीरसता के आगे,
हमें हथियार डाल देने पड़ते हैं।


मैंने बहुत सोचा- शाम की नीरसता को कैसे छला जाए।
फिर समझ में आया,
शाम की अपनी समस्या है।


शाम असल में उस लड़की की तरह है,
जिसे दिन अपने घर से निकाल बाहर करता है,
और वो लड़की काफी देर तक रात की सांकल खटखटाती रहती है।
पर रात उसे अपने घर में जगह नहीं देती।
शायद रात अपने सपनों को नीरसता से दूर रखती है।
शाम बेचारी- न दिन की रह पाती है, न रात की।


ओर हम यहीं ग़लती कर बैठते हैं,
हम उसे अपना घर दे देते हैं,
और उस नीरसता के साथ खेलना शुरु कर देते हैं।
नीरसता का अपना सुख होता है,
जैसे- किसी को बहुत देर तक डूबते हुए देखने का सुख।


अब आप सूरज को ही ले लो...
भले ही हम दिन में सूरज की आँच से न जले हो,
पर शाम को हमें उसका डूबना-देखना,
सुख देने लगता है।
ये ख़तरनाक है...
मतलब आप उस लड़की से प्रेम कर बैठे।


तब!!!
तब रात अपने छोटे-छोटे सपनों को,
आपसे बचाती फिरती है।
और दिन...
दिन कभी भी आपको अपने घर से निकाल बाहर करता है।

'अकेलापन...'





'कोई बुलाएगा का इंतज़ार...'
'कहीं कोई बुला न ले'- के डर में जब बदलता है।
तब खालीपन दरवाज़ा खोलकर निकलता हैं।
और अकेलापन, कुर्सी पर आकर बैठ जाता है।



ऎसे समय में, मैं अक्सर ये सोचता हूँ,
कि मैं बहुत 'अलग' हूँ।



मैं अपनी आँखों से तवे पर रखी रोटी पलट सकता हूँ।



रोटी जल जाती है।
अकेलापन हँसता है...।



कहीं कोई भूखा होगा की कल्पना में,
रोटी फेंकता नहीं हूँ...
खाता भी नहीं हूँ...
दूध का जला, छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है।



अकेलेपन के साथ कुर्सी पर आकर बैठ जाता हूँ।
अकेलेपन से (धीरे से) कहता हूँ,
अब मैं 'सामान्य' हूँ।



अगली रोटी पे हाथ नहीं लगाता हूँ।
आँखो का काम चिमटा करता है।
रोटी पलट जाती है।



मैं!!!
मैं हँस देता हूँ।

मेरा घर...





मेरा घर दो जगह से टपकता है...



अरे!!! हँसिए मत, बात गंभीर है।
मैंने इसे ठीक कराया कई बार,
पर इसने इन्कार कर दिया हर बार।



अक्सर दूसरों की बात पर लोगों को हँसी आती है,



ठीक है-
'मेरा घर दो जगह से टपकता है,आप ही इसे ठीक करा दो'
मैं कहता हूँ।
पर फिर भी कोई यक़ीन नहीं करता।
क्योंकि ये घर हमेशा अकेले में मेरे साथ टपकता है।
पर किसी के आते ही शरमा जाता है जैसे,
टपकना बंद... क्यों?
अरे टपकना है तो हमेशा टपको,
यूँ बीच में बदं क्यों?



मेरा गुलाबी सा जवान घर,
अकेले में मेरे साथ टपकता है.... पता नहीं क्यों?



जब भी अकेले,
किसी मौसम को पकड़े घर में होता हूँ,
ये घर सूँघ लेता है जैसे....
पता नहीं कहाँ, कैसे...
कहीं बरसात हो रही होती है,
और ये घर यहाँ मेरे साथ टपकना शुरु कर देता है।



मेरा गुलाबी सा जवान घर,
अकेले में मेरे साथ टपकता है.... पता नहीं क्यों?

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008

'ठीक तुम्हारे पीछे'...



मैंने हर बार रख दिया है,
खुद को पूरा का पूरा खोलकर।
खुला-खुला स बिखरा हुआ, पड़ा रहता हूँ।

कभी तुम्हारे घुटनों पर...
कभी तुम्हारी पलकों पर...
तो कभी ठीक तुम्हारे पीछे।

बिखरने के बाद का, सिमटा हुआ सा मैं,
'था'- से लेकर -' हूँ ' तक...
पूरा का पूरा जी लेता हूँ, खुद को - फिर से।

मेरे जाने के बाद तुम शायद मुझे पढ़ लेती होगी,
कभी अपने घुटनों पर...
कभी अपनी पलकों पर...
पर जो कभी 'ठीक तुम्हारे पीछे'- बिखरा पड़ा था मैं, वो...
वो शायद पड़ा होगा अभी भी-
की आशा में,
मैं.. खुद को समेटे हुए,
फिर से आता हूँ तुम्हारे पास,
फिर,
बार-बार, और हर बार,
छोड़ जाता हूँ, थोड़ा-सा खुद को...
ठीक तुम्हारे पीछे।

बुढ़ापा...





हर आदमी कुछ समय के बाद नीचे रख दिया जाता है।
नीचे रख दिया जाना... उसे पता लग जाता है।
'अब आराम करो'- की बजाए...
'अब इंतज़ार करो'- उसे सुनाई देता है।

अलग कर दिया जाना उसे मंज़ूर है पर,
रास्ते से नीचे धकेल दिया जाना नहीं...
वो रास्ते पर वापिस आने के लिये लड़्ता है।
लड़ना..? किसके लिये..?
अपने ही रास्ते पर वापिस आने के लिए?
वो सोचता है...! थोड़ा रुक जाता है!!!
फिर लड़ना शुरु करता है,
पर अब लड़ना बदल चुका है।
'यहां किसी को आपकी ज़रुरत नहीं है'- के विरुद्ध।
'ज़रुरत हैं'- के लिए लड़ता है।
थक जाता है।

'सब ठीक है' - में -'कुछ ठीक नहीं है।'
दिखने लगता है।
'सब ठीक करने निकलता है'- पर,
चल नहीं पाता है इसलिए,
बोलना शुरु कर देता है।
बच्चा हो जाता है, खैलना शुरु कर देता है।

'यहाँ किसी को आपकी ज़रुरत नहीं है'- को भूलकर,
अपनी छोटी-छोटी ज़रुरतें ढूँढने लगता है।

धीरे-धीरे ज़रुरतें ख़त्म हो जाती है,
वो बहुत बूढ़ा हो जाता है।

तब..-'इंतज़ार करो'- की बजाए..
'सोया करो'- उसे सुनाई देता है।
और वो सो जाता है।

'प्रकॄति हमें अच्छी लगती है'...



'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- का एक पक्षी,
हमने अपने घर के पिंजरें में बंद कर रखा है।
और एक फूल ग़मले में उगा रखा है।


'हमें सुखी रहना चाहिए'- की हँसी,
लोगों को बाहर तक सुनाई देती है।
दुख की लड़ाई और रोना भी है,
पर वो सिर्फ इसलिए कि खुशी का पैमाना तय हो सके।


'बुज़ुर्गों की इज़्ज़त के माँ-बाप'- घर के कोनों में,
ज़िंदा बैठे रहते हैं।


'जानवरों से प्रेम'- की एक बिल्ली,
घर में यहाँ-वहाँ डरी हुई घूमती रहती है।


'इंसानों में आपसी प्रेम है'- के त्यौहार,
हर कुछ दिनों में चीखते-चिल्लाते नज़र आते हैं।
पर वो सिर्फ इसलिए कि 'इंसान ने ही इंनसान को मारा है'-
की आवाज़ें हमें कम सुनाई दे।


'हमको एक दूसरे की ज़रुरत है'- के खैल,
हम चोर-पुलिस, भाई-बहन, घर-घर, आफिस-आफिस
के रुप में, लगातार खेलते रहते हैं।


पर इस सारी हमारी खूबसूरत व्यवस्था में,
हमारे 'नाखून बढ्ते रहने का जानवर भी है।
जिसे हमने भीतर गुफा में,
धर्म और शांति की बोटियाँ खिला-खिलाकर छुपाए रखा है।


और फिर इन्हीं दिनों में से एक दिन....
'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- के पक्षी को,
'जानवरों से प्रेम की बिल्ली'- पंजा मारकर खा जाती है।
'हमारे नाखून बढते रहने का जानवर'-
गुफा से बाहर निकलकर बिल्ली को मार देता है।
'वहां बुज़ुर्गों की इज़्ज़त के माँ-बाप'-
चुप-चाप सब देखते रहते है,
और घर में 'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- का पिंजरा,
बरसों खाली पड़ा रहता है।

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

प्रेम...



तुम तक पहुँच पाता हूँ क्या मैं...
तुम्हें इतना हल्के छूने से।
तुम्हें छूते ही मुझे लगता है,
हमने इतने साल बेकार ही बातों में बिता दिए।
असहाय सी हमारी आँखें कितनी बेचारी हो जाती हैं,
जब वो शब्दश: ले लेती हैं, हमारे नंगे होने को।
चुप मैं... चुप तुम...
थक जाते हैं जब एक दूसरे को पढकर,
तब आँखें बंद कर लेते हैं।
फिर सिर्फ स्पर्श रह जाते हैं- जो व्यवहारिक हैं,
और हम एक दूसरे की प्रशंसा में लग जाते हैं।
तुम्हारा हल्के हँसना, मुस्कुराना,
मुझे मेरे स्पर्श की प्रशंसा का- 'धन्यवाद कहना',
जैसा लगता है।
फिर हम एक-एक रंग चुनते हैं,
और एक दूसरे को रंगना शुरु करते हैं,
बुरी तरह, पूरी तरह...
तुम कभी पूरी लाल हो चुकी होती हो,
तो कभी मैं पूरा नीला।
इस बहुत बडे संसार में हम एक दूसरे को इस वक्त,
"थोडा ज्यादा जानते हैं"- का सुख,
कुछ लाल रंग में तुम्हारे ऊपर,
और कुछ नीले रंग में मेरे ऊपर,
हमेशा बना रहेगा।

ब्लैक-बोर्ड...



बड़े से ब्लैक-बोर्ड पर,
मेथमेटिक्स का एक इक्वेशन लिखा हुआ है...
जिसे हम नीचे साल्व कर रहे होते हैं।
उपर डस्टर हमारी पिछली जिंदगी को मिटा रहा होता है।
कुछ अंक, कुछ धुंधले शब्द...
जिसे डस्टर ठीक से मिटा नहीं पाता,
उनका रिफ्रेंस ले-लेकर हम,
जीवन की इक्वेशन को हल कर रहे होते हैं.....लगातार।

रात..



सभी अपने-अपने तरीके से रात के साथ सोते हैं।
हर आदमी का रात के अंधेरे के साथ अपना संबंध होता है।
अग़र ये संबंध अच्छा है,
तो आपको नींद आ जाती है।
और अगर ये संबंध खराब है,
तो आपके जीवन के छोटे-छोटे अंधेरे,
रात के अंधेरे नें घुस आते हैं,
और आपको सोने नहीं देते।

नींद...



मैंने सुनहरा सो़चा था,
वो काला निकला।


तभी नींद का एक झोंका आया,
मैंने उसे फिर सुनहरा कर दिया।


अब... सुबह होने का भय लेकर नींद में बैठा हूँ।
या तो उसे उठकर काला पाऊँ,
या हमेशा के लिए उसे सुनहरा ही रहने दूँ...
और कभी न उठूँ।

टीस..



सब कुछ हो रहा है,
हर शाम एक टीस का उठना,
सब कुछ होने मैं शामिल रहता है।


किस्म-किस्म की कहानियाँ, आँखो के सामने चलती रहती है।
कुछ पड़ता हूँ ... कुछ गढ़ता रहता हूँ।


दिन में आसमान दखता हूँ।

जो तारा रात में दखते हुए छोडा था...वो दिन में ढूँढता हूँ।
सपने दिन के तारों जैसे है।
जो दिखते नही हैं... ढूढने पड़ते हैं।


रात में सपने नहीं आते....
सपनों की शक्ल का एक आदमी आता है।
ये बचा हुआ आदमी है।
जो दिन के 'सब कुछ होने में'- सरकता रहता है,
और शाम की टीस के साथ अंदर आता है।
ये दिन की कहानी में शामिल नहीं होता....
इसकी अपनी अलग कहानी हैं...
जिसे जीना बाक़ी है...।

रेखाएं..




आदतन...
अपना भविष्य मैं अपने हाथों की रेखाओं में ट्टोलता हूँ।
'कहीं कुछ छुपा हुआ है'- सा चमत्कार,
एक छोटे बादल जैसा हमेशा मेरे साथ चलता है।
तेज़ धूप में इस बादल से हमें कोई सहायता नहीं मिलती है।
वो बस हथेली में एक तिल की तरह , पड़ा रहता है।
अब तिल का होना शुभ है,
और इससे लाभ होगा..
इसलिए इस छोटे से बादल को संभालकर रखता हूँ।
फिर इच्छा होती है, कि वहाँ चला जाऊँ...
जहाँ बारिश पैदा होती है,
बादल बट रहे होते हैं।
पर शायद देर हो चुकी है,
अब मेरी आस्था का अंगूठा इतना कड़क हो चुका है,
कि वो किसी के विश्वास में झुकता ही नहीं है।
फिर मैं उन रेखाओं के बारे में भी सोचता हूँ...
जो बीच में ही कहीं ग़ायब हो गई थी।
'ये एक दिन मेरी नियति जीयेगा'- की आशा में...
जो बहुत समय तक मेरी हथेली में पड़ी रहीं।
क्या थी उनकी नियती?
...कौन सी दुनिया इंतज़ार कर रही है, इन दरवाज़ों के उस तरफ़,

जिन्हें मैं कभी खोल नहीं पाया...।

तभी मैंने एक अजीब सी चीज़ देखी,

मैंने देखा मेरे माथे पर कुछ रेखाएँ बढ गयी हैं..अचानक...

अब ये रेखाएँ क्या हैं...क्या इनकी भी कोई नियति है, अपने दरवाज़े हैं?

...नहीं...इनका कुछ भी नहीं है,

बहुत बाद में पता चला इनका कुछ भी नहीं है...।


ये 'मौन' रेखाएँ हैं

मौन उन रेखाओं का जो मेरे हाथों में उभरी थीं,

पर मैं उनके दरवाज़े कभी खोल ही नहीं पाया।

सच ...मैने देखा है- जब भी कोई रेखा मेरे हाथों से ग़ायब हुई है,

मैने उसका मौन, अपने माथे पर महसूस किया है।
पता नहीं,
पर मुझे लगता है, यही मौन हैं, जो हमें बूढा बनाते हैं।
जिस दिन माथे पर जगह ख़त्म हो जाएगी ..
ये मौन चेहरे पर उतर आएगा,
और हम बूढे हो जाएंगें...।

पानी...




भीतर पानी साफ था...
साफ ठंडा पानी, कूँए की तरह,
जब हम पैदा हुए थे।
जैसे-जैसे हम बड़े होते गए,
हमने अपने कूँए में खिलौने फैंके,शब्द फैंके,
किताबें, लोगों की अपेक्षाओं जैसे भारी पत्थर....
और इंसान जैसा जीने के ढेंरो खांचे।
और अब जब हमारे कूएँ में पानी की जगह नहीं है,
तो हम कहते हैं....
ये तो सामान्य बात है।

पतंग..



छोटे-छोटे न मालूम कितने सारे संबंधो के सिरे,
गिनता बैठा था।
जो कुछ छूट गए हैं,
ओर जो कुछ छूटने को हैं।


जो संबंध छूट गए हैं, वो कहानी बन गए हैं,
जिन्हें कहते-सुनते, हमारा वक़्त गुज़र जाता है।


पर जो संबंध छूटने को हैं,
वो अभी, इस वक्त वैसे है जैसे....
आपकी पतंग कटने के बाद,
जब कोई बच्चा आपके मांझे को कहीं ओर पकड़ लेता है।
वो उस छोर पर खड़ा होकर इंतज़ार करता है।
संबंध को न तोड़ता है, न छोड़ता ही है।
आप यहाँ पतंग कटने के दुख को भूलकर....
अपने मांझे को बचाने में लग जाते हैं।


दोनों के संबंध का तनाव, मांझे पर देखा जा सकता है।


पतंगबाज़ो के अनुसार....
जो संबंध को पहले खींचके तोड़ेगा,
उसके पास सबसे कम मांझा आएगा।


धैर्य- परिक्षा धैर्य की होती है।
क्योंकि बात कहानी में नायक होने की है।
ग़र उसने संबंध पहले तोड़ा,
तो कहानी आपकी है... ओर नायक भी आप ही हैं।
पर अग़र आपका धैर्य टूट गया...
तो पूरी ज़िन्दगी कहानी में आपकी भूमिका,
खलनायक की ही होगी।

माँ





धूप चेहरा जला रही है,
परछाई, जूता खा रही है,
शरीर पानी फेंक रहा है,
एक दरख़्त पास आ रहा है।



उसके आंचल में मैं पला हूँ,
उसके वात्सल्य की साँस पीकर,
आज मैं भी हरा हूँ।
आप विश्वास नहीं करेंगें,
पर इस जंगल में एक पेड़ ने मुझे सींचा है।
मैं इसे माँ कहता हूँ।



जब रात शोर खा चुकी होती है,
जब हमारी घबराहट, नींद को रात से छोटा कर देती है,
जब हमारी कायरता, सपनों में दखल देने लगती है।
तब माथे पर उसकी उंग्लियाँ हरकत करती हैं
ओर मैं सो जाता हूँ...।

बुधवार, 20 फ़रवरी 2008

खिड़की से आकाश...



थोड़े में बहुत कुछ देख लेना,
और बहुत कुछ होने पर, हमारा आँखे बंद कर लेना।
मैं कभी-कभी अपना सबसे खूबसूरत सपना याद करता हूँ।
मेरा सबसे खूबसूरत सपना भी कभी,
बहुत खूबसूरत नहीं था।
मेरे सपने भी- थोड़ी सी खुशी में, बहूत सारे सुख, चुगने जैसे हैं,
जैसे कोई चिड़िया अपना खाना चुगती है।
पर जब उसे एक पूरी रोटी मिलती है।
तो वो पूरी रोटी नहीं खाती है,
तब भी वो उस रोटी में से,रोटी
चुग रही होती है।
बहुत बड़े आकाश में भी हम अपने हिस्से का आकाश चुग लेते हैं..।
देखने के लिए हम बहुत खूबसूरत और बड़ा आसमान देख सकते हैं।
पर जीने के लिए...
हम उतना ही आकाश जी पाऎंगे...
जितने आकाश को हमने,
अपने घर की खिड़्की में से जीना सीखा है।

'जिया जा चुका...'



जितना भी गुज़र चुका है... वो सपना ही है।
'जिया है'... का विश्वास कम है,
फिर भी 'जिये जा चुके के पिंजरे'-में बंद हूँ,
और अब जो जीना है...
उसे 'जिये जा चुके के पिंजरे'-से हाथ बाहर निकालकर..
छूने की कोशिश करता हूँ।
'जिया जा चुका'-जीने नहीं देता है।
मैं बैठा रहता हूँ...
खडे होने का डर है...
डर है-कहीं मेरे खडे होने से 'कोई जिया जा चुका'
पिंजरे से बाहर न गिर जाए,
क्योंकि बाहर तो अभी जीना है।
'जीया जा चुका' बाहर के जीने में कहीं खो न जाए।

'बादल...'




जब खाना खाने के बाद तुम,
थाली में अपनी उंगलियों से चित्र बनाती हो।
तो पता नहीं क्यों मैं उस वक्त, बादलों के बारे में सोचता हूँ।
उस समय एक चुप्पी रहती है।
अजीब सी लम्बी... बहुत लम्बी चुप्पी...।

शायद तुम्हें पता नहीं है कि तुम,
अपनी उंगलियों से थाली में क्या बना रही हो?
पर मैं उन बादलों को देख रहा हूँ....
जिन्हें कभी तुम घना कर देती हो,
तो कभी एक भी बादल तुम्हारी थाली में नहीं होता....

फिर तुम एक गहरी सांस भीतर लेती हो..और उसे छोड देती हो।
'चुप ही रहूँ...'
'या कुछ कह दूँ..'
जैसे विचारों के बहुत से हाथी और खरगोश,
बादलों मैं बनते-बिगडते रहते हैं।

और अचानक तुम बादलों को अकेला छोडकर,
थाली के किनारों को ज़ोर-ज़ोर से रगडने लगती हो।
जैसे जो बादल अभी-अभी तुमने बनाए थे...
वो बस बरसने ही वाले हैं।

तभी एक बूँद थाली में आकर गिरती है...
और सारे के सारे बादल.... भीग जाते हैं।

आप देख सकते हैं....

Related Posts with Thumbnails