सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

'परछाईंयाँ...'





मेरी परछाईयों के अंधेरे में,
पता नहीं कितनी परछाईयाँ दबी हैं, छिपी हैं।



वो जो कभी मेरे साथ थी,
और वो जो कभी थी ही नहीं।



जाने कितनी परछाईयों के अंधेरे कोने,

मेरी परछाई में छूट गये हैं।
कई परछाईयाँ अपने बाल छोड़ गयीं।
कई अपनी आँखे,
तो कईयों की सिर्फ उँगलियाँ ही मेरे पास है।



अब ये छूटे हुए अंधेरे,
मेरी परछाईं की तरफ देखकर ताकते हैं...
कुछ रंग ढूँढ़ते हैं...
तो कुछ शब्द...।



मैं अपनी परछाईं का बढ़ता हुआ मौन महसूस करता हूँ।



पर क्या करुं?
मैंने ही अपने हाथों से,
ये सारे परछाईंयों के अंधेरे बटोरे हैं।
और अब अपनी ही परछाईं के साथ चलने में...
आजकल मैं थक जाता हूँ।

आप देख सकते हैं....

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