जितना भी गुज़र चुका है... वो सपना ही है।
'जिया है'... का विश्वास कम है,
फिर भी 'जिये जा चुके के पिंजरे'-में बंद हूँ,
और अब जो जीना है...
उसे 'जिये जा चुके के पिंजरे'-से हाथ बाहर निकालकर..
छूने की कोशिश करता हूँ।
'जिया जा चुका'-जीने नहीं देता है।
मैं बैठा रहता हूँ...
खडे होने का डर है...
डर है-कहीं मेरे खडे होने से 'कोई जिया जा चुका'
पिंजरे से बाहर न गिर जाए,
क्योंकि बाहर तो अभी जीना है।
'जीया जा चुका' बाहर के जीने में कहीं खो न जाए।
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