रविवार, 24 फ़रवरी 2008

'सूखी पंखुड़ियाँ...'



यहीं पे खड़ा था मैं।
पहाड़ के, इसी छोर पर...


जब अचानक मैंने तुम्हें सूंघा था।
तुम्हारे शरीर की गंध...


घबराकर इधर-उधर देखा।
तुम नहीं थी, तो कया था ये? कल्पना?
नहीं मैंने तुम्हें सूंघा था- सच!


फिर अपने कपड़ों पर निगाह गई,
कहीं मैंने तुम्हारा कुछ पहना तो नहीं हैं...
स्वेटर... रुमाल..या...


जेब में हाथ गया,
तो उस पहाड़ के छोर पर खड़े हुए...
मैं मुस्कुरा दिया।


कुछ फूल की सूखी पंखुड़ियाँ जेब में पड़ी थीं...
जाने कब से।


जब तक मैं उन्हें सूंघ पाता,
वो मेरी जासूस बन उड़ गई उस ओर...
जहाँ- पहली बार उन्होंने, मेरे साथ,
तुम्हारी सुगंध को बटोरा था।

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