खुद-ही का चला हुआ,
पराए लोगों की तरह याद आता है।
और जो अभी चलना है,
वो दिखते ही थका देता है।
फिर मैं चल नहीं पाता..
मैं बैठ जाता हूँ...
हर ऎसे समय,
अपने साथ काफी समय बैठने के बाद,
मैंने जब भी अपनी जेब में हाथ डाला है।
मुझे वहाँ लोग पड़े मिले हैं।
जेब के कोनो में...
अपनी सारी जटिलता लिए,
चुप-चाप,
दुबके-सहमे..बीमार लोग।
ग़लती मेरी ही है।
मैं ही इन सबका इलाज,
दूसरो की जेबों,
और आँखो में ढूँढता हूँ।
इन सभी की कहानियाँ कह्के,
मैं इन सबका इलाज कर सकता हूँ...
पर इसके लिए मुझे एक बीमारी चाहिए,
जिसका,
इन लोगों की तरह मुझे भी इंतज़ार है।
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