रविवार, 24 फ़रवरी 2008

'दिन की चालाकी...'



दिन में हम काफी चालाक होते हैं।
हम बड़ी चतुरता से दिन गुज़ार देते हैं।
असल में दिन बड़े भोले होते हैं,
उन्हें छला जा सकता है।


मगर शाम, शाम की नीरसता के आगे,
हमें हथियार डाल देने पड़ते हैं।


मैंने बहुत सोचा- शाम की नीरसता को कैसे छला जाए।
फिर समझ में आया,
शाम की अपनी समस्या है।


शाम असल में उस लड़की की तरह है,
जिसे दिन अपने घर से निकाल बाहर करता है,
और वो लड़की काफी देर तक रात की सांकल खटखटाती रहती है।
पर रात उसे अपने घर में जगह नहीं देती।
शायद रात अपने सपनों को नीरसता से दूर रखती है।
शाम बेचारी- न दिन की रह पाती है, न रात की।


ओर हम यहीं ग़लती कर बैठते हैं,
हम उसे अपना घर दे देते हैं,
और उस नीरसता के साथ खेलना शुरु कर देते हैं।
नीरसता का अपना सुख होता है,
जैसे- किसी को बहुत देर तक डूबते हुए देखने का सुख।


अब आप सूरज को ही ले लो...
भले ही हम दिन में सूरज की आँच से न जले हो,
पर शाम को हमें उसका डूबना-देखना,
सुख देने लगता है।
ये ख़तरनाक है...
मतलब आप उस लड़की से प्रेम कर बैठे।


तब!!!
तब रात अपने छोटे-छोटे सपनों को,
आपसे बचाती फिरती है।
और दिन...
दिन कभी भी आपको अपने घर से निकाल बाहर करता है।

आप देख सकते हैं....

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