बुधवार, 20 फ़रवरी 2008

'बादल...'




जब खाना खाने के बाद तुम,
थाली में अपनी उंगलियों से चित्र बनाती हो।
तो पता नहीं क्यों मैं उस वक्त, बादलों के बारे में सोचता हूँ।
उस समय एक चुप्पी रहती है।
अजीब सी लम्बी... बहुत लम्बी चुप्पी...।

शायद तुम्हें पता नहीं है कि तुम,
अपनी उंगलियों से थाली में क्या बना रही हो?
पर मैं उन बादलों को देख रहा हूँ....
जिन्हें कभी तुम घना कर देती हो,
तो कभी एक भी बादल तुम्हारी थाली में नहीं होता....

फिर तुम एक गहरी सांस भीतर लेती हो..और उसे छोड देती हो।
'चुप ही रहूँ...'
'या कुछ कह दूँ..'
जैसे विचारों के बहुत से हाथी और खरगोश,
बादलों मैं बनते-बिगडते रहते हैं।

और अचानक तुम बादलों को अकेला छोडकर,
थाली के किनारों को ज़ोर-ज़ोर से रगडने लगती हो।
जैसे जो बादल अभी-अभी तुमने बनाए थे...
वो बस बरसने ही वाले हैं।

तभी एक बूँद थाली में आकर गिरती है...
और सारे के सारे बादल.... भीग जाते हैं।

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