'कोई बुलाएगा का इंतज़ार...'
'कहीं कोई बुला न ले'- के डर में जब बदलता है।
तब खालीपन दरवाज़ा खोलकर निकलता हैं।
और अकेलापन, कुर्सी पर आकर बैठ जाता है।
ऎसे समय में, मैं अक्सर ये सोचता हूँ,
कि मैं बहुत 'अलग' हूँ।
मैं अपनी आँखों से तवे पर रखी रोटी पलट सकता हूँ।
रोटी जल जाती है।
अकेलापन हँसता है...।
कहीं कोई भूखा होगा की कल्पना में,
रोटी फेंकता नहीं हूँ...
खाता भी नहीं हूँ...
दूध का जला, छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है।
अकेलेपन के साथ कुर्सी पर आकर बैठ जाता हूँ।
अकेलेपन से (धीरे से) कहता हूँ,
अब मैं 'सामान्य' हूँ।
अगली रोटी पे हाथ नहीं लगाता हूँ।
आँखो का काम चिमटा करता है।
रोटी पलट जाती है।
मैं!!!
मैं हँस देता हूँ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें