शनिवार, 24 नवंबर 2012

तू....

थोड़ी देर तक उसका नाम लेने से वह सपनों में चली आती है। देर तक मुझपर हंसकर वह मेरे पास बैठना चाहती है। जगह की कमी हम दोनों महसूस करते हैं... दुनिया कितनी बड़ी है... वह कहती है। मैं अपनी जगह् से भटक जाता हूँ। किंगफिशर सामने के पेड़ पर आकर मेरी ख़ाली बाल्कनी देखता रहता है। मैं देर तक बाल्कनी को भर देने की कोशिश करता हूँ..। हम एक दूसरे की ख़ाली जगह भर सकते थे... मैं तुम्हारे साथ बूढ़ा होना चाहता हूँ... मैंने अपनी गर्म सांसो में लपेटकर कई बार यह बात उसके पैरों के पास रखी थी। जीवन बहुत सरल था और हम फिर चालाक निकले....। हमने अपने बड़े होने के सबूत दिये.. खेल हमेशा बचकाना था। अब वह सपने में हैं... कहानी ख़ाली पड़ी है..। बाल्कनी में झूला लगाने की ज़िद्द जीवन मांगती है। और हम दोनों जीवन को चुन लेते हैं। सपने में वह कहती है.... और मैं सपनों में उसे जी लेता हूँ।

रविवार, 9 सितंबर 2012

वापसी...

आज बहुत दिनों बाद दांए मुड़ गया था। कविता एक जरजर घर की तरह खंडहर थी। पैरों में चटखने वाली पुरानी चीज़े, अपनी धूल तक नहीं छोड़ रही थीं। धूल... धुंध... और धुन....। एकांत... एकांत था बहुत। पूरे घर में सरक रहा था। पुराने पड़े शब्दों से पीला पानी टपक रहा था। क्या सच में वापसी संभव है? वापस उन्हीं बंद किवाड़ों को खड़खटाया जा सकता है? बिना इस डर के कि पता नहीं कौन सा छूटा हुआ कोई... दरवाज़ा खोल दे।

आप देख सकते हैं....

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