गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

श्रम...


क्या हमारा श्रम तोला जा सकता है?
क्या कहा जाएगा कि ’इसका तो इतना ही होगा भाई’
या कहा जाएगा कि ’यह काफी नहीं है।’
मैंने श्रम दान किया है...
इस तरह की कोई बात भीतर से उठेगी,
और मेरा सारा श्रम...
हाशिए पर रख दिया जाएगा।
यूं बाज़ार में भाव-तोल करना मेरे खून में है,
धोखा खा जाऊगाँ का डर हमेश बना रहता है।
पर अपने श्रम के साथ भाव-तोल जाता नहीं,
हाँ यह दोग्लेपन की बात है,
पर यह अंतर्मुखी श्रम है...
इसमें श्रम,
अंतर्मुखी नाम की एक चिड़िया करती है।
और उस श्रम को बाहर कोई ओर सहता है।
डरा हुआ मैं बाहर हूँ...
इसलिए वह भीतर उड़ती फिरती है।
यहाँ डर धोखे का नहीं है...
यहाँ डर है...
उस चिड़िया का पसीने में बदल जाना।

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