
बहुत देर तक समुद्र को देखते रहने से,
उसपर चलने लगूगाँ का सा भ्रम होता है।
गर चल देता तो आश्चर्य होता,
’कि देखो मैं समुद्र पर चल रहा हूँ।’
कुछ देर चलते रहने से,
’मैं समुद्र पर चलता हूँ!’ यह बात सामान्य हो जाती।
आश्चर्य की आदत, जो हमें पड़ गई हैं।
वह अगला आश्चर्य- उड़ने का जगाती।
हक़ीकत के नियम लोग बताते कि आदमी उड़ नहीं सकता है।
मैं शायद भवरें का उदाहरण देता...
कि उसे भी नियमानुसार उड़ना नहीं चाहिए!!!
पर अंत में मैं उड़ नहीं पाता....शायद।
वापिस घर जाने के रास्ते पर... चलते हुए।
समुद्र पर चल सकता हूँ...
सपना लगता...
और मैं सो जाता।