शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

बरग़द...


कतरे पन्ने हाथ में,

एक टूटा हुआ पेन...

लंगड़ाते-लंगड़ाते एक दिन मैं रास्ता पार कर लूगां।

अपनी थूक से पेन की निब को गीला करके...

मैं गाड़ियों को रोकूगाँ।

उनकी रफ्तार को महज़ सांस लेने की सरलता तक ले आऊगाँ।

अगर तो वह चीख़ते-चिल्लाते हुए अपने हार्न बजाने लगेगें...

तो मैं सड़क के उस तरफ उन्हें...

ज़मीन पर लेटा पड़ा बरग़द दिखाऊगाँ।

मैं डरते-डराते रास्ता पार नहीं करुगाँ।

गर रफ्तार फिर भी नहीं थमी...

तो मैं अपने सारे कतरे पन्ने.. हवा में उड़ा दूगाँ।

जब वह फड़फड़ाते हुए नीचे आएगें...

तो मैं उन कतरे पन्नों के नीचे...

लंगड़ाता-लड़खड़ाता नाचूगाँ।

अपने टूटे हुए पेन को...

बीच रास्ते में गड़ा दूगाँ।

जब अंत में सब खाली हो जाएगा...

तो मैं सीधे चलते हुए..

रास्ते के उस तरफ जाऊगाँ...

और उस उखड़े पड़े बरग़द से लिपटकर...

सो जाऊगाँ...।

 

4 टिप्‍पणियां:

Apanatva ने कहा…

अच्छी रचना है |

Matangi Mawley ने कहा…

Beautiful!

I attended u'r poetry reading session today- in chennai.. n thank goodness i did! U r a damn good poet! Wht thoughts!

"prakriti achchi lagti hai" and "rekhaayein" hav become my favs. now!

aeise hi likhte rahiye.. humeshaa! thathaasthu!

बाबुषा ने कहा…

ये तो बहुत नाज़ुक है..जैसे रेशम से लिपटी हुयी ..इसमें खुरदुरापन होके भी नजाकत बनी हुयी है ..

Daisy ने कहा…

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