गुरुवार, 10 जुलाई 2008

सूटकेस...


मेरी पल्कों के बाल कई बार मेरी हथेली तक आए हैं,
पर मैंने कभी उन्हें आँखें बंद करके उड़ाया नहीं।
मैंने कई बार तारों को भी टूटते हुए देखा है,
पर मेरी आँखें तब भी खुली रही...
आँखें बंद करके मैंने कभी कुछ मांगा नहीं।
उस सुख की भी कभी तलाश नहीं की...
जिस सुख को जीते हुए मेरी आँखें झुक जाए।
पर एक टीस ज़रुर है...
वो भी उन सुखों की जो मेरे आस-पास ही पड़े थे,
कई बार मेरे रास्ते में भी आए, पर पता नहीं क्यों,
मैं उन्हें जी नहीं पाया....।
अपने ऎसे बहुत से सुखों को, जिन्हें मैं जी नहीं पाया...
मैंने अपने इस पुराने सूटकेस में बंद कर दिया है...।
कभी-कभी इसे खोलकर देख लेता हूँ...
इसमें बड़ा सुख है...
और इस सुख को मैंने कभी अपने इस पुराने सूटकेस में,
गिरने नहीं दिया।
इसे हमेशा अपने पास रखता हूँ।
जिन सुखों को जी नहीं पाया...
उन सुखों को महसूस करना कि, कभी इन्हें जी सकता था।
ये अजीब सुख है।
और जिन सुखों को मैं जी चुका हूँ,
उनका अपना अलग बोझ है,
जिसे ढ़ोते-ढ़ोते जब भी थक जाता हूँ....
तब अपना पुराना सूटकेस खोल लेता हूँ...
और थोड़ा हल्का महसूस करता हूँ।

4 टिप्‍पणियां:

Subodh Taigor ने कहा…

मानव जी! आनंद आ गया आपके आत्म-मंथन को पढ़ कर... धन्यवाद्!

jaskiran ने कहा…

Amazing! Incredibly beautiful, Manav.

Apoorv Bhardwaj ने कहा…

bahut bahut behtar.

ADITYA SINGH CHAUHAN ने कहा…

बहुत खूबसूरती से शब्दों का प्रयोग, अच्छा काम है आपका

आप देख सकते हैं....

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