शनिवार, 21 अगस्त 2010

रुह...


वह बहुत दूर है।
उसकी आँखें कभी चमकती हैं बहुत पास,
मैं बात शुरु करता हूँ वह फिर दूर दिखती है।
रुह जैसी कोई चीज़ नहीं है।
मेरी सांस के साथ जो भी भीतर जाता है वह चिपक जाता है।
रह-रहकर मेरी आँखों की नमी उस चिपके हुए की पपड़ी झड़ाती रहती है।
वह बहुत दूर है।
या तो रुह वह चुंबक है जो सारा जिया हुआ चिपका लेती है,
या रुह वह धरातल है जिस पर पपड़ी का झड़ना बहुत समय तक गूंजता रहता है।
चिपकने और गूंजने के अलावा भीतर कुछ ओर सत्य नहीं है।
हाड़-मांस के इस पिंजरे के भीतर कल्पना की कितनी जगह है?
वह बहुत दूर है।
इस सब में....
वह रुह नहीं है, वह पपड़ी भी नहीं है,
चुंबक तो कतई नहीं...
नहीं रुह जैसी कोई चीज़ नहीं है।
तो वह धरातल में कहाँ सरकती फिरती है?
मैं भीतर उसकी गूंज सहता हूँ,
बात करने जाता हूँ, वह दूर खड़ी मुझे इशारा करती है।
मेरी दूर की नज़र कमज़ोर है...
और आपकी कमज़ोरी हमेशा कल्पना को पंख देती है।
वह बहुत दूर है, और कहीं बहुत भीतर है...
दूर धुंधलके में कहीं जब कुछ हरकत होती है,
तो भीतर कहीं एक पपड़ी झड़ती है...
वह मेरे बहुत करीब कानों में कुछ फुसफुसाती है...
और इस बार मैं उसका कोई जवाब नहीं देता हूँ।

6 टिप्‍पणियां:

Pratibha Katiyar ने कहा…

sundar!

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

क्यों
आत्माएं शरीरों में दफनाई गयी है...
शायद
बस किसी अनबूझ ग़लतफ़हमी में
पर
विश्व में अकारण तो कुछ भी नहीं...

बाबुषा ने कहा…

तलाश..ठहराव...फिर तलाश...फिर ठहराव ...फिर तलाश ..फिर से ठहराव ..! ऐसा चलता रहता है ..
पर यहाँ आके ऐसा लगता है तलाश ही तलाश है..फिर तलाश और फिर तलाश और फिर से तलाश !

बेनामी ने कहा…

Bahut badiya :)

Lekhani Kosh ✍️ ने कहा…

Bahot khoob

Lekhani Kosh ✍️ ने कहा…

शब्द ही तो हैं हमारे,
कविता की पंक्तियों में सारे..
समेट लेती है लेखनी दर्द कितने,
बन स्याही बयान भी करती चुपके से...

आप देख सकते हैं....

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