
’गंदगी भीतर ही रखो’ की गालियों के बीच मैं अपनी बात कहता हूँ।
पीछे रह गए बहुत से चित्रों को अपने साथ घसीटता फिरता हूँ।
बद्दुआ देके जाती लड़कियों को दूर तक देखता हूँ,
और माँ से कहता हूँ...... ’अब मैं जा रहा हूँ।’
बहुत तेज़ प्रकाश का मूल कहीं ऊपर...
दूर ऊपर, सबसे ऊपरी माले पर बैठने की कोशिश करता हूं...।
जलने के डर से पूरे शरीर पर शब्दों को गूदता रहता हूँ।
जब भी मुझे आस्था की ज़रुरत होती है मैं किचिन में जाकर चाय बनाता हूँ।
6 टिप्पणियां:
sunder abhivykti .
जब भी मुझे आस्था की ज़रुरत होती है मैं किचिन में जाकर चाय बनाता हूँ
bahut sundar pankti
अजीब सी कविता...
ठीक बात
अंदर कुछ टूटे तो बाहर कुछ "बनाते" रहना चाहिये
अभी ये कहना चाहूँगा के
में तुम से गले मिल के काफी
हद तक रो सकता हु.
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