मंगलवार, 31 अगस्त 2010

वह कहीं गायब है...


वह कहीं गायब है...
वह कोने में खड़ा महत्वपूर्ण था।
उसकी जम्हाई में मेरी बात अपना अर्थ खो देती थी।
वह जब अंधेरे कोने में गायब हो जाता तो मैं अपना लिखा फाड़ देता।
वह कहीं गायब है....
’वह फिर दिखेगा’... कब?
मैं घर के कोनों में जाकर फुसफुसाता हूँ।
’सुनों... अपने घर में कुछ फूल आए हैं....’
घंटों कोरे पन्नों को ताकता हूँ... पर घर के कोने खाली पड़े रहते हैं।
फिर जानकर कुछ छिछले शब्द पन्नों पर गूदता हूँ...
उन मृत शब्दों की एक सतही कविता ज़ोर-ज़ोर से पूरे घर को सुनाता हूँ।
कि वह मारे ख़ीज के तड़पता हुआ मेरे मुँह में जूता ठूस दे।
पर वह नहीं दिखता, कभी-कभी उसकी आहट होती है।
मैं जानता हूँ वह यहीं-कहीं है...
क्योंकि जब भी मैं घर वापिस लोटता हूँ,
मुझे मेरा लिखा पूरे घर में बिखरा पड़ा दिखता है।
मुझे पता है जब कभी मैं घर से दूर होता होऊंगा..
वह अंधेरे कोनों से निकलकर मेरे गुदे हुए पन्नों को पलटता होगा...
कुछ पन्नों को फाड़ता होगा... कुछ को मेरे सिरहाने जमा देता होगा।
वह अब मेरे साथ नहीं रहता...
जब मैं होता हूँ तो वह गायब रहता है...
और मेरे जाते ही वह हरकत में आ जाता है।

5 टिप्‍पणियां:

Apanatva ने कहा…

adbhut lekhan.....

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

कौन? ख़ामोशी सा अकेलापन शायद...

बाबुषा ने कहा…

Has India found a new mystic poet ?

Manish Mahawar ने कहा…

शानदार!

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Daisy ने कहा…

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