मंगलवार, 11 मार्च 2008

दहलीज़ पार...



तुम्हारी दहलीज़ पर खड़े रहकर,
कितनी ही बार मैंने कसम खाई है कि-
'नहीं..मैं भीतर नहीं जाऊगां।'
'मैं दरवाज़ा भी नहीं खटखटाऊगां...ना।'

और कुछ ही देर में मैं तुम्हारे साथ,
तुम्हारे बगल में पाया जाता हूँ...
और भीतर पड़े हुए,
दहलीज़ पर खाई हुई अपनी कसमों को याद करता हूँ।

उन बचकाने कारणों के बारे में सोचता हूँ,
जिन्होने मुझे फिर एक बार...
दहलीज़ के इस तरफ...
तुम्हारे बगल में लाकर बिठा दिया।

सच मुझे हँसी आती है,
कैसे हैं ये कारण-
- यहाँ से गुज़र रहा था सोचा तुमसे मिलता चलूं...
- कल रात तुम्हारा सपना देखा तो मुझे लगा कि....
- आज मैं बहुत खुश हूँ इसलिए...
- हममम...!!!
- आज दिन बहुत उदास है.. तुम्हें नहीं लगा?...
- तुम्हारी माँ की बड़ी याद आ रही थी तो...
- सरप्राईज़... !!!
- नई कविता लिखी है, सोचा तुम्हें सुना दूं तो...
- एक चाय पीने की इच्छा थी इसलिए...
और...
- तुम्हें बस एक बार देखना चाहता था।

'तुम्हें बस एक बार देखना चाहता था'-
वाली बातों ने हमेशा मुझसे..
तुम्हारा ये दरवाज़ा खुलवाया है।

इन कसमों- कारणों के बारे में,
मैंने तुम्हें कभी नहीं बताया...
और शायद कभी बतऊंगा भी नहीं।

बस तुम्हारे बगल में बैठे हुए...
तुम्हारी बातें सुनते- कहते हुए...
मुझे उन कसमों और कारणों के बारे में सोचना,
अच्छा लगता है।

3 टिप्‍पणियां:

Malay M. ने कहा…

So cute ... kabhi kabhi bilkul saadgi se seedhi seedhi kahi kavita bhi kitni sunder hoti hai.. koi aavaran nahi , koi chchadmm nahi , koi kaushal ya baazigari nahi ... bas ek komal bhavnaa ... bahut sundar , dil ko chchooti hui ...

बेनामी ने कहा…

bahut pyare masum bhavon se bhari khubsurat kavita

Quietude N ने कहा…

life me ye bhav hote hai..aapki poem sab batati hai..

आप देख सकते हैं....

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