रविवार, 9 मार्च 2008

'सही है...।'



सभी कह कह कर थक गए...
मर गए...
चले गए...
वहीं से हमने फिर कहना शुरु किया,
वैसा का वैसा..
रटा हुआ सा..
और सबने कहा... सही है।


लोगो के काम किए हुए सा चित्र..
हमने उन्हीं के सामने बना दिया,
कुछ काम किया है- का भ्रंम,
थोड़ा खुद को दिया...
थोड़ा लोगो में बाट दिया।
और सबने कहा... सही है।


हम अपना जीवन..
यूँ ही नहीं काट रहे हैं- के जवाब देते-देते,
थके हुए से हम...
वहीं नीरस चढ़े हुए फिर से चढ़ने लगे।
शिखर पर जगह बनाकर...
थोड़ा इसको हिलाकर..
थोड़ा उसको खिसकाकर...
हम बैठ गए..
फिर लेट गए..
और फिर सो गए।
सबने कहा... सही है।

सबसे पहले हमने क्या खाना सीख़ा,
अंड़ा या मुर्गी।
इस प्रश्न से जब हम बोर हुए तो...
इन्सान के अलावा जो भी चीज़ धरती पर हिली,
हमने उसे खुलेआम खाना सीख लिया।
एक बार मेरे खाने में एक बच्चे की उगंली मिली,
मैं डर गया...
इससे पहले कि लोगों को पता लगे कि...
हम इन्सान भी खाने लगे है..
मैं तुरंत उगंली गटक गया।
एक डकार ली और कहा-
'यार मटन कड़्वा था.. यार!!!
आदमी का था क्या?'
कुछ लोग हंसे...
और कुछ ने कहा... सही है।

'हम सब किसी मकसद से पैदा हुए है'- से विचार,
हम सबने...
दूध में घोल-घोल कर,
बचपन से पिए हैं।
फिर वो कहानियाँ भी हमने पढ़ी हैं...
रटी हैं...
जिन्होने हमें तो बोर किया,
पर उन्होने, हज़ारों मक़्सदो सी दीवारें,
हमारे चारों तरफ खड़ी कर दी।
अब मक़्सद नाम का मेरा घर है...
दूध पचता नहीं है...
हर सुबह एक अंगड़ाई लेकर कहता हूँ-
'कुछ करना है यार...'
और सब कहते हैं... सही है।

बहुत अमीर आदमी को..
बहुत अमीर आदमी बनाने के लिए...
हमने बहुत पढ़ाई की।
बहुत अमीर आदमी कभी,
बहुत अमीर आदमी नहीं हुआ।
हम बहुत पढ़ाई करने के बाद भी,
उसे बहुत अमीर आदमी नहीं बना पाए।
फिर हमने अपने बच्चे पैदा किए।
ढ़ेरों बच्चो को...
ढे़रों किताबों से लादकर..
उसी अमीर आदमी के बनवाएं स्कूलो में..
हमने उन्हें ढूस दिया।
स्कूल में बच्चों से पूछा-
'किसके बेटे हो।'
अमीर आदमी ने सिखाया-
'भगवान के...'
और हम सबने कहा...सही है।
सही है... सही है।

आप देख सकते हैं....

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