मंगलवार, 4 मार्च 2008

'थामूं तुम्हारा हाथ'



'थामूं तुम्हारा हाथ'-
इस वाक्य के पीछे हमारे,
साथ जिए की पता नहीं कितनी कहानियाँ...
तुम मेरी आँखो में ढूँढती हो..
जब मैं तुमसे कहता हूँ...
'थामूं तुम्हारा हाथ'


पता नहीं क्यों?
पर तुम यूं ही अपना हाथ आगे नहीं बढाती हो..
तुम मेरी आँखो में एक कहानी टटोलना शुरु करती हो...
जिसका अंत 'थामूं तुम्हारा हाथ'- को बनाकर तुम..
अपना हाथ मेरे हाथ में दे सको।


बस यहीं... ऎसी ही जगह...
यूं ही कहे गए मेरे वाक्य,
मुझे बोझ लगने लगते हैं।


मैं चाहता हूँ सच कहना...
कि मेरे-'थामूं तुम्हारा हाथ' के पीछे... सिर्फ खालीपन है..
एक मंदिर की तरह...
उस मंदिर की तरह जिसका कोई देवता न हो।


खैर..
'थामूं तुम्हारा हाथ'- कहते ही सब कुछ,
थोड़ी देर के लिए रुक गया।
तुम्हारा हाथ...
मेरा सच...
हम दोंनों...


तुम्हारी आँखे, एक बच्चे जैसी, कहानी की ज़िद करने लगी...
और मेरा बोझ चेहरे से शरीर में उतरने लगा।


पर मेरी आँखे इस बोझ में भी हल्की थी,
क्योंकि वो इस वक्त खून कर रही थी..
उस मासूमियत का...
जिससे मैंने यूं ही तुम्हें कह दिया था..-
'थामूं तुम्हारा हाथ'


'तुम्हारी आँखे कहीं मेरी आँखो से हट न जाए'- के डर से..
इस बीच..
मैं कई देवता तुम्हारे सामने रखता हूँ,
जिसे तुम्हारी आँखे उस मंदिर में देखना चाह रही थी।


अचानक...
सब रुका हुआ थोड़ा हरकत करता है...
तुम्हारा हाथ ढीला पड़ने लगता है...
आँखे नीचे झुकने लगती हैं...


जल्दी में...
मैं एक देवता को चुनकर...
तुरंत उस मंदिर में स्थापित कर देता हूँ।
और तुम एक सांत्वना भरी मुस्कान देके..
मुड़ जाती हो...।

3 टिप्‍पणियां:

anuradha srivastav ने कहा…

आपकी रचना में कुछ तो है..............
एक खिंचाव...... एक कशिश......

Sanjeet Tripathi ने कहा…

बढ़िया!!

Unknown ने कहा…

मानव - बहुत बढ़िया - लेकिन उदास - [ये भी हँसना सीखने जैसी रही ]
[ यार ये वर्ड वेरीफिकेशन हटा लो - कमेंट करने में चिक पिक हो जाती है ]

आप देख सकते हैं....

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