'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- का एक पक्षी,
हमने अपने घर के पिंजरें में बंद कर रखा है।
और एक फूल ग़मले में उगा रखा है।
'हमें सुखी रहना चाहिए'- की हँसी,
लोगों को बाहर तक सुनाई देती है।
दुख की लड़ाई और रोना भी है,
पर वो सिर्फ इसलिए कि खुशी का पैमाना तय हो सके।
'बुज़ुर्गों की इज़्ज़त के माँ-बाप'- घर के कोनों में,
ज़िंदा बैठे रहते हैं।
'जानवरों से प्रेम'- की एक बिल्ली,
घर में यहाँ-वहाँ डरी हुई घूमती रहती है।
'इंसानों में आपसी प्रेम है'- के त्यौहार,
हर कुछ दिनों में चीखते-चिल्लाते नज़र आते हैं।
पर वो सिर्फ इसलिए कि 'इंसान ने ही इंनसान को मारा है'-
की आवाज़ें हमें कम सुनाई दे।
'हमको एक दूसरे की ज़रुरत है'- के खैल,
हम चोर-पुलिस, भाई-बहन, घर-घर, आफिस-आफिस
के रुप में, लगातार खेलते रहते हैं।
पर इस सारी हमारी खूबसूरत व्यवस्था में,
हमारे 'नाखून बढ्ते रहने का जानवर भी है।
जिसे हमने भीतर गुफा में,
धर्म और शांति की बोटियाँ खिला-खिलाकर छुपाए रखा है।
और फिर इन्हीं दिनों में से एक दिन....
'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- के पक्षी को,
'जानवरों से प्रेम की बिल्ली'- पंजा मारकर खा जाती है।
'हमारे नाखून बढते रहने का जानवर'-
गुफा से बाहर निकलकर बिल्ली को मार देता है।
'वहां बुज़ुर्गों की इज़्ज़त के माँ-बाप'-
चुप-चाप सब देखते रहते है,
और घर में 'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- का पिंजरा,
बरसों खाली पड़ा रहता है।
4 टिप्पणियां:
मानव - आपका ब्लॉग बुक मार्क कर लिया है - शैली और कहना दोनों अनूठे हैं - मज़ा आया - मनीष
धन्यवाद...
waah....kahin kuch aag hai...badhaayi
mai apne aap ko mahaan nahi banaana chahtee.. lekin ye kavita poori tarah se mel khati hai... isi tunz ke saath ek kavita maine jiski lathi usi ki bhains... ke saath likhi thee.. :( kho guyee... kavita, lathi aur bhains bhi....
Abha
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