वक्त इतना छोटा हो गया था,
जैसे हाथ में बंधा हो।
जगह इतनी बड़ी हो गई थी,
जैसे उसका चश्मा आँखो में लगा हो।
इसी,
जगह-और-वक्त के बीच में कहीं,
एक पल हमने जिया है।
उस पल में-
एक पगडंडी थी,
जिसके बगल से पानी बह रहा था।
उसमें पेड़ से अभी-अभी गिरे एक पत्ते सा,
हमारा वर्तमान बह रहा था।
उस सूखते हुए वर्तमान में तभी मैंने,
अभी-अभी जिए हमारे पल का संघर्ष देखा।
वो एक कीड़े सा,
उस सूखते हुए पत्ते के छोर पर,
निकलकर बैठ गया था।
मानो वो अतीत के गहरे समुद्र में,
एक स्वप्निल याद सा,
बचा रह जाना चाहता हो।
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