मैंने हर बार रख दिया है,
खुद को पूरा का पूरा खोलकर।
खुला-खुला स बिखरा हुआ, पड़ा रहता हूँ।
कभी तुम्हारे घुटनों पर...
कभी तुम्हारी पलकों पर...
तो कभी ठीक तुम्हारे पीछे।
बिखरने के बाद का, सिमटा हुआ सा मैं,
'था'- से लेकर -' हूँ ' तक...
पूरा का पूरा जी लेता हूँ, खुद को - फिर से।
मेरे जाने के बाद तुम शायद मुझे पढ़ लेती होगी,
कभी अपने घुटनों पर...
कभी अपनी पलकों पर...
पर जो कभी 'ठीक तुम्हारे पीछे'- बिखरा पड़ा था मैं, वो...
वो शायद पड़ा होगा अभी भी-
की आशा में,
मैं.. खुद को समेटे हुए,
फिर से आता हूँ तुम्हारे पास,
फिर से आता हूँ तुम्हारे पास,
फिर,
बार-बार, और हर बार,
छोड़ जाता हूँ, थोड़ा-सा खुद को...
ठीक तुम्हारे पीछे।
बार-बार, और हर बार,
छोड़ जाता हूँ, थोड़ा-सा खुद को...
ठीक तुम्हारे पीछे।
9 टिप्पणियां:
hmmm....ajab si..kuch yaad dilaaney jaisii......aapka blog yaad rakhna padegaa....baar baar padhney jaisaa
I've probably not identified with anything more than this in a long long time ..... So simple, and simply, so true ( of me, too ).
This one is too good boss. Or is it too good to be true ?? ( This time of me, only )
thanx meet...
lovely to know that u like it..
thanx
manav
this is the one of the best poem i ever read in my life.....
Hey I really like ur blog Manav. Keep writing. I too have blog Mankamaun.blogspot.com come der. U never hamare Maun Takra kr Shabd ban jaye.
So deep and pure...
poempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoempoem
poempoem
This is too beautiful and simple. I am reciting it again and again. Also loved your book "Antima", I am writing some poems with same titles. You are great.
कविता यदि निरंतरता है तो उसमे निरंतर बहता हुआ संवेदनाओं का कोई दरिया हैं 'मानव कौल',खुद को ढूंढना कितना सहज है आपकी लेखनी में
एक टिप्पणी भेजें