तुम तक पहुँच पाता हूँ क्या मैं...
तुम्हें इतना हल्के छूने से।
तुम्हें छूते ही मुझे लगता है,
हमने इतने साल बेकार ही बातों में बिता दिए।
असहाय सी हमारी आँखें कितनी बेचारी हो जाती हैं,
जब वो शब्दश: ले लेती हैं, हमारे नंगे होने को।
चुप मैं... चुप तुम...
थक जाते हैं जब एक दूसरे को पढकर,
तब आँखें बंद कर लेते हैं।
फिर सिर्फ स्पर्श रह जाते हैं- जो व्यवहारिक हैं,
और हम एक दूसरे की प्रशंसा में लग जाते हैं।
तुम्हारा हल्के हँसना, मुस्कुराना,
मुझे मेरे स्पर्श की प्रशंसा का- 'धन्यवाद कहना',
जैसा लगता है।
फिर हम एक-एक रंग चुनते हैं,
और एक दूसरे को रंगना शुरु करते हैं,
बुरी तरह, पूरी तरह...
तुम कभी पूरी लाल हो चुकी होती हो,
तो कभी मैं पूरा नीला।
इस बहुत बडे संसार में हम एक दूसरे को इस वक्त,
"थोडा ज्यादा जानते हैं"- का सुख,
कुछ लाल रंग में तुम्हारे ऊपर,
और कुछ नीले रंग में मेरे ऊपर,
हमेशा बना रहेगा।
4 टिप्पणियां:
waah....
mere paas shabd hi nahi bachte aapko padhne ke baad! behtreen...
हां,सचमुच...।
ये कविता मुझे बहुत पसंद है :)
And I can relate it beautifully! :D
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